दुःखमुक्ति की साधना | Dukhmukti Ki Sadhna

Dukhmukti Ki Sadhna by लक्ष्मी नारायण राठी - Lakshmi Narayan Rathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११. मंत्र का जप करता है या फिर किसी रूप या आकृति का या अपनी इष्ट देवी-देवता का ध्यान करने लगता है । तव कुछ समय के लिए उसके ऊपरी ऊपरी चेतन-चित्त पर कुछ शान्ति प्राप्त होती है । फलत चित्त स्थिर भी होता है भले ही १५ मिनट ही क्यो न हो । इस प्रकार के ध्यान द्वारा वह त्वरित शान्ति मिलाने का उपाय अवश्य खोजता है । सारे जगत्‌ मे ऐसे योगाभ्यास के ध्यान के नानाविध मागे और उपाय चल ही रहे हूं और लोग उनके पीछे भागदौड कर ही रहे है । ये योगाभ्यास और ध्यान कुछ अवधि के लिए भले ही चित्त को करने का उपाय हो सकता है परतु वे अन्तमन की गहराई में जाकर सब्नित कर्म-सस्कारो को उखाड़ फेकने में समर्थ नहीं होते केवल उन पर एक मीठा सा आवरण छा जाता है जिससे अभ्यासक को वडा भानन्द सा जान पडता है । अपितु जब तक सचित कर्म-संस्कार भरे पड़े हैं तब तक विकार तो जागते ही रहेंगे और दुख उत्पन्न होता ही रहेगा । इसलिए इन सब्नचित कर्म-सस्कारी को उखाड फेकने की विधि हाथ आनी चाहिए । केवल चित्त की एकाग्रता से और अस्थायी शान्ति से काम नहीं बनता । ऐसी चित्त-शुद्धि प्राप्त होती रहे जिससे सही माने में चित्त-शान्ति अपने आप बढती रहे नये कमें-सस्कार बने नही और पुराने सस्कार क्षीण होते जाय । और यह विपश्यना साधना से ही सहज साध्य है । इसमे शील-सदाचार का अभ्यास है सम्यक्‌ समाधि द्वारा अर्थात्‌ अपने ही स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास के राग-द्वेप_ विह्ीन आलम्बन से चित्त की एकाग्रता का अभ्यास है और प्रज्ञा द्वारा अन्तर्मुखी होकर यथाभूत दर्शन अर्थात्‌ स्थूल सच्चाई से लेकर अन्तिम सच्चाई तक साक्षीभाव से दर्शन का अभ्यास है । यह शरीर की चित्त की एव चेतसिक वृत्तियों की अन्तिम सच्चाई तक और इसके परे इन्द्रियातीत निर्वाण के तक पहुंचने का आर्य-अष्टाडगिक मार्ग है । इस तरह चित्तशुद्धि के इस अभ्यास से असीम मंत्री असीम करणा असीम मुदिता और असीम समता से चित्त भरने लग जाता है | जीवन में ऐसा अनमोल विद्यारत्त विपश्यना साधना के अभ्यास से ही प्राप्त हो सकता है तथा दस दिनों के प्रथम शिविर में ही इसकी स्वानुभूति होने लगती है। यह अनमोल विद्या भगवान गौतम वुद्ध ने अपने अनेक जन्मों की तपश्चर्या से अपने कठोर तप के साक्षात्कार से २५०० वर्पों के पुर्व पुनश्च खोज निकाली और उन्होंने सारे विश्व को शान्ति का मार्ग दिखा दिया है । भगवान वुद्ध के परिनिर्वाण के लगभग ५०० वर्पों तक यह विद्या भारत में शुद्ध रूप में चलती रही और वाद मे लुप्त हो गयी । परतु पडोसी वर्मा देग मे यह विद्या उसी शुद्ध रूप में गुरु शिष्य परम्परा द्वारा गत २५०० वर्पों से जतन की गयी है । भगवान वुद्ध के २५०० वर्ष वाद यह विद्या फिर से सारे विश्व मे फंलेगी इस




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