नाट्य सिद्धांत | Natay - sidhant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ सेठ गोविन्ददास श्रमिनन्दन-ग्रत्य लिए जाते थे श्रौर इनका सामान्य परिचय कालिदास के विक्रमोर्वशीय के प्रगीतात्मक चतुर्थ झंक के रंगमंत्रीय रूपान्तर से हो सकता है जो कुछ पांडुलिपियों में सुरक्षित है जव किसी हृश्य अथवा भाव की पृष्ठभुमि के रूप में यदा-कदा किसी विशिष्ट मुर््घनायुक्त प्रमाव की झावव्यकता होती थी तव ऐसे गीत गाए जाते थे जिनमें केवल संगीतात्मकता मुख्य होती थी ग्रथवा बंशी-जैसे वाद्यों का उपयोग किया जाता था | भरत ने सस स्वरों तथा रसों में प्रात हो सकने वाले सहज सम्बन्ध को तथा जातियों श्रधवा संपीत-प्रणालियों को--जो नाटक की विशिष्ट भावात्मक स्थितियों के लिए सन्नद्ध की जा सकती थीं--प्रस्तुत किया है । कइ्यप नामक लेखक ने नाटक में प्रयोग के लिए राग-रस-पथो जनाओं को विस्तार के साथ प्रस्तुत किया है । वस्वुत्त हम प्राचीन संगीत को नाट्य-परिचा रक के रूप में भ्रघिक जानते हैं श्रौर संगीत दाव्द सुख्यतः . गायन एवं वादन के सहाय्य से संचालित रंगमंचीय कला के लिए प्रयुक्त होता था । प्राचीन भारत में नृत्य-नाटक की यही शैली थी जिसने कालिदास और श्री हरप को उत्पन्न किया था यही नाट्यघर्मी भ्रथवा श्रादर्शात्मक एवं कलात्मक प्रविधि थी जिसने संस्कृत-नाटक को कविता संगीत एवं नृत्य-शवलित सर्वतोमुखी कला बना दिया जो भारतीय रंगमंच की प्रमुख विशेषता है । देश के समस्त श्रवशिष्ट श्रान्तीय रूपों में इसी प्रकार का निरूपण हमें मिलता है । यह इस श्रकार को मिश्रित कला है जो व्यक्ति को सभी पुर्वीय देशों में जहाँ-जहाँ श्रतीव में मारतीय सम्यता का प्रसार हुमा हृष्टिगत्त होती है | भरत ने इस प्रकार की सृष्टि को भ्रपेक्षाकृत श्रघिक श्रेष्ठ श्ीर कलात्मक मान कर ऑ्राम्यन्तर कहा है ब्ौर दूसरी प्राकृतिक सुष्टि को जिससे झ्राज हम मली-भाँति परिचित हे हीन श्रथवा श्रट्प कलात्मक मान कर वाह्य कहा है 1 रंगमंघीय श्रशिनयों की अनुपूरक श्रेणी में जो भरत के परवर्ती युग में परिचित तथा नियमवद्ध थीं हम इस क्रियाशील नृत्य-नाटक दौली को अधिक प्रचलित देखते हैं । थे उपरूपक--जिनके वीस प्रकार थे--लोक-रूपों से ग्रहण किए गये थे श्ौर ये लौकिक संस्कृत-रंगमंच तथा देशी भापषा-रूपों के वीच की कड़ी हैं । इसमें से कुछ सेंगीतात्मक हैं जिनका गायन नर्तन तथा मुद्राशों में व्यास्या होती है शरीर कुछ नृत्य-रचनाओं के वहुत अधिक समीप है ये संस्कृत-रंगमंच की श्राघारसूत समृद्धि विभिन्नता एवं विकास- शक्ति को स्पष्ट करती हैं । स्वयं नाटक के क्षेत्र में सर्वाधिक अवलोकनीय विकास नाटिका नामक नवीन रीति का विकास है जिसमें घौर्यात्मक नाटक तथा सामाजिक प्रकरण के तत्व सम्मिलित रहते थे । इसके उदाहरण कालिदास का मालविका््निमित्र तथा उसके प्रभाव में लिखें गये झनेक परवर्ती नाटक हैं ।




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