बन्दी जीवन | Bandi Jeevan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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14 / बस्दी जीवन तरह वह प्रतिभा नहीं है बहू सम्यक्‌ दृष्टि भी नहीं है जिसके कारण एक दिन भारतवर्ष सभ्यता के चरम शिखर पर आरूढ़ था । मुझे तसलली नहीं हुई। गीता के कर्मयोग के आदर्श ने मुझे बहुत कुछ सहारा दिया उपनिषद्‌ से भी मुझे इस बात का सहारा मिला । सिवेकानन्द की वाणी में कमंयोग एवं संन्यास दोनों तरह की ही बातें मिलीं । लेकिन प्रामाणिक रूप से मुझे यह सबूत नहीं मिला कि कमें का मांगे ही एकमात्र सत्य रास्ता है । तब मैंने यह निश्चय किया कि सम्भवत हम अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार योग कमेयोग या संन्यासयोग को ग्रहण कर सकते हैं कोई रास्ता किसी दुसरे रास्ते से न छोटंइ है न बडा । अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार जिस रास्ते को हम ग्रहण करेंगे वही रास्ता हमारे लिए सही है एवं और सब रास्ते ग़लत हैं। कम-से-कम दूसरे रास्ते में जाने से हमें अवश्य कुछ-न-कुछ हानि होगी । अब यह निणय कसे होगा कि मेरी प्रकृति कसी है एवं कौन-सा रास्ता मेरी प्रकृति के अनुकूल है ? साधघु-संगति करके एवं शास्त्र-वचनों से मुझे यह पता चला कि ऐसा निर्णय करने के लिए तीन स्मघन मौजूद हैं। एक तो अपनी विचारबुद्धि है दूसरा सतगुरु की सहायता है और तीसरा शास्त्रवचन है। इन तीनों में यथाथें मेल होना चाहिए। केवल शास्त्रवचन से काम नहीं चलेगा । कारण एक तो शास्त्र बहुत हैं इसलिए उनमें से अवश्य ही चुनाव करना पड़ेगा । यह बात सच है कि शास्त्रवचन भी अभिज्ञता के आधार पर स्थित हैं तथापि विभिन्‍न महापुरुषों ने अलग-अलग रास्ते पर चलकर सत्यानुभति की है । इसलिए कौन-सा मागें मेरे लिए प्रशस्त है इसका निर्णय शास्त्रवचन मात्र से ही नहीं हो सकता इसके लिए शिक्षक की आवद्यकता है। जब संसार के प्रत्येक काम में शिक्षक की आवश्यकता है तो क्या सत्यानुसंघान के काम में ही दिक्षक की आवश्यकता नहीं होगी ? किन्तु केबल दिक्षक से ही काम नहीं चल सकता । शिक्षा लेनेवाला यदि उपयुक्त न हो तो शिक्षक क्या करेगा? एवं कौन मेरा शिक्षक होगा यह निर्णय भी तो मुझे ही करना पड़ेगा ? इस- लिए अन्त में अपनी विचारबुद्धि पर ही निमंर करना पड़ता है । लेकिन अपनी प्रकृति को छोड़कर उसका उल्लंघन करके मैं कुछ नहीं कर सकता । इसलिए भारतीय साघन-पद्धति में सर्वप्रथम बात यह है कि सत्य की खोज करने के पहले अपने को निष्पक्षतापूर्णे बनाना पड़ता है । सम्पूर्णतया निष्पक्षपाती हुए बिना सत्य की खोज सम्भव नहीं है। लेकिन यथायथे रूप में निष्पक्षपाती होना आसान बात नहीं है । इसके लिए हमें स्वाथंशून्य होना आवश्यक है । और स्वाथंशन्य हम तभी हो सकते हैं जब हम अपनी वासना के वशीभूत न हों । वासनातीत होना और वेराग्यवान होना एक ही बात है । इसलिए भारतीय साधना में बराग्य होना स्वेप्रथम आवश्यक है। वासनातीत होने का अर्थ यह नहीं है कि मुझमें किसी प्रकार की वासना न हो बल्कि वासनातीत होने का अर्थ यह है कि मैं किसी वासना के अधीन न होऊं प्रत्येक वासना मेरे अधीन रहे। इस प्रकार से अपने को यथासम्भव हर एक प्रकार के संस्कारों से मुक्त रखकर तब सत्यानुसंधान




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