आनन्द की खोज | Aanand Ki Khoj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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15 1860) ने तो अभिभूत होकर यहाँ तक कह दिया है कि “उपनिषद्‌ मेरे जीवन का सहारा रहे हैं और मेरी मृत्यु का अवलम्बन रहेंगे ।”' इनमें अत्यन्त योपनीय आत्मज्ञान को बड़े सरल एवं सुन्दर ढंग से ब्रह्मवेत्ता ऋषियों ने परम प्रिय शिष्यों को पास बैठाकर (उप+नि+षद्‌ू) समझाया है। उन दिनों पुस्तक-पोथी तो थी नहीं, अतः बोले हुए शब्द का बहुत बड़ा महत्त्व था । जो गुरु कहते थे, शिष्य उन शब्दों को पूरे मनोयोग से सुनते-समझते थे और अपनी अमूल्य धरोहर की तरह सँजोकर हृदय में स्थापित कर लेते थे। कितने सौभाग्य की बात है कि आज यह 'उपनिषद्‌-ज्ञान हमें पुस्तकाकार उपलब्ध हैं, साथ ही उन पर अनेक टीकाएँ और भाष्य भी मौजूद हैं । हमें इनका पूरा लाभ उठाना चाहिएं। हमारी मान्यता है कि यदि हम इस सुन्दर पृथ्वी को-और साथ ही सम्पूर्ण मानव-जाति को, जो इस समय विध्बंस के कगार पर टिकी हुई है--सर्वनाश से बयाना चाहते हैं तो हमें उपनिषदों के संदेश का यथासम्भव प्रचार एवं प्रसार करना चाहिए। यों तो 200 से अधिक उपनिषद्‌ कहे जाते हैं, पर भारत की अदयार स्थित थियोसॉफिकल सोसाइटी ने 200 प्राप्य उपनिषदों की सूची तैयार की है । इनमें 08 महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं, पर प्रातःस्मरणीय आदिशंकराचार्य ने केवल 11 उपनिषदों पर भाष्य लिखा है, और वे सर्वमान्य हैं । उन उपनिषदों के नाम हैं-- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर। वैसे उन्होंने कौशीतकी, जाबाल, महानारायण एवं पिंगल उपनिषदों की भी चर्चा की है। वेदों की संहिताओं में जहाँ ज्ञान, कर्म और उपासना का सुन्दर समन्वय है, वहाँ ज्राह्मण-भागों में कर्मकाण्ड एवं धार्मिक अऊनुष्ठानों की व्याख्या की गई है, पर उपनिषदों में केवल ज्ञानकाण्ड का ही विवेचन है और शुद्ध दर्शन का बड़े मनोरज॑क ढंग से प्रतिपादन किया गया है। कितने ही उपनिषदों का अंग्रेजी तथा जर्मन भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और कुछ का अन्य भाषाओं में भी। मुगल शहज़ादे मुहम्मद दाया शिकोह को उपनिषदों से इतना लगाव था कि उन्होंने लगभग 50 उपनिषदों का फारसी भाषा में अनुवाद कर डाला (1656-57) जिनका द्यूपेरों ने लातिन में अनुवाद किया (1801-02) । ब्रिटिश बिद्दान्‌ मे 52 उपनिषद्‌ संगृहीत किए । उन्होंने उपनिषदों का अध्ययन किया तो वे उनसे अत्यन्त प्रेरित हुए। अमरीकन कवि वाल्ट ह्विटमेन कहते हैं कि में प्रतिपादित विचार समस्त मानव- जाति, समस्त युगों तथा समस्त प्रदेशों के लिए सराहनीय हैं '' अर्थात्‌ इनका सदेश सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है, वह कभी फीका नहीं पड़ता और प्रत्येक व्यक्ति उनसे लाभ उठा सकता है।




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