हम अनिकेतन | Hum Aniketan

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Hum Aniketan by श्री नरेश मेहता - Shri Naresh Mehata

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ £ हम अनिकेतन नगर-सेठ के अहाते की बड़ी सी नीम पर या फिर जति महाराज के विशाल पीपल पर आकाश की अधथाहता में उड़ जाने को आकुल, ताकि इस रोज-रोज के अकेलेपन से मुक्त हुआ जा सके। और एक दिन अपने काका पंडित शंकरलाल मेहता के साथ नर्मदातट के एक निमांड़ी कस्बे धरमपुरी पहुँचा दिया जाता हूँ लेकिन अकेलापन, परिवारहीनता मेरी जान्मिक नियति थे। काका विधुर थे, हालाँकि खूब बड़ा सा आवास, नौकर- चाकर सभी थे पर नहीं था ज्ञो घर ही नहीं था। गर्मियों की चाँदनी रातों में अचानक नींद उचट जाती। बगल के पलंग पर मसहरी में लेटे काका गहरी निद्रा में होते। उस बड़े से खुले आँगन में हवा में उड़ती मसहरी में मेरा मन न जाने कहाँ उड़ने लगता। आकाश की नीली गहराइयों में तारे कैसे स्फटिक से चमक रहे होते। उस बड़े से रेतीले प्रांगण में सन्नाटा कैसा लिखा लगता। दूर-दूर तक कहीं कोई शब्द नहीं, पर मेरे भीतर जैसे कोई पुकार रहा होता-माँ !! और यही एक संबंध था जो अनाम तारा बनकर ब्रह्माण्ड की गहराइयों में कभी दिखता, कभी डूब जाता। प्राय: लगता कि मैं चल कहाँ रहा हूँ, विपरीत अनमापी दूरियों के बीच घिसट रहा हूँ। वर्षा के दिनों में जब खूज नदी में पानी होता तो चट्टानों पर उसका जल कितने वेग से बहते हुए शोर कर रहा होता। मैं भी तो इसी प्रकार अपने जलों के साथ टूट-टूट पड़ रहा हूँ, शोर भी है परन्तु इस न सुनायी पड़ने वाले शोर का एकमात्र श्रोता मैं ही होता हूँ। क्या किसी दिन मेरे जलों को फोड़कर मेरा यह चीखना कोई अन्य भी सुन सकेगा? शायद नहीं । यह प्रचण्ड नर्मदा भी कभी नहीं सुन पाएगी। खूज के शोर से तो वह परिचित है परन्तु चट्टानी कगारों पर खड़े एक किशोर की अकेली आर्तता उसे कभी नहीं सुनायी देती। नर्मदा का गंभीर प्रवाह कभी मेरे भीतर के आकुल प्रवाह को अपने में लीन नहीं कर सकता। तट की ये खड़ी विन्ध्या कगारें नर्मदा में कैसी मसृणता से उतर जाती हैं और स्वयं नदी बन जाती हैं । क्या किसी दिन कगारों की इन खड़ी घाटियों से उतरते मैं भी नर्मदा में ऐसे ही समाहित हो सकता हूँ? पानी का बेवड़ा सिर पर उठाये लाल लुगड़ों में खड़ी चढ़ाई चढ़ती इन निमाड़ी स्त्रियों में क्या सम्भव है कोई माँ हो, जिसके साथ घर पहुँचूँ? चूल्हा जला, मुझे सामने बैठालकर प्याज-रोटी या बेसन भात ही परसे, पर परसे तो। एक पूरी रात॑ माँ के उठते-गिरते सीने पर सिर रखकर सोने की अलभ्यता क्या किसी दिन नहीं मिलेगी? सुनते हैं अलत्‌ सबेरे चक्की पर आटा पीसते हुए माँ जो गीत गाती है उस समय माँ की जाँघ पर सिर . रखकर सोना दुनिया की सबसे बड़ी नियामत है। ऐसे न जाने कितने राग-प्रसंगों, .रसस्टसादरारस्टरयबाददपशरयाशफरसयरायकरललादशसरासाडपसरापास-उराससध्सरदाय्सदकाथकदादटरयाााककससरपययशरसपास्वारसनसकसयासशकवाताइसदकयायपलसिससशादाधतसाससलारस्तसकशय नल सागलाययाउतसरयगरुकपपपतण्ताराशराधगयसमनपसरलसनपकादयागण




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