घनानंद - कबित्त | Ghananand-kabit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ लगे । प्रपद्य के प्रयोग में प्रकाव्य का प्रक्ष नहीं रहा पद्य का चाहे जो प्रकर्ष समभा-समभाया जाए। नकेन के हाथ नकेल रह गई साहित्य की विसंष्ठु- लतावाली करवट भर ही दिखाई पड़ी । नई कविता में व्यक्तित्व की श्रोर ही झधिक कुकाब है । नवीनता के श्राग्रह से काव्य की सरसता से भी हट जाने के कारण शभ्रालोचक इसकी कड़ी-कद ्रलोचना-टी का करते हैं । लक्षणा का स्वरूपलक्षण ही है व्यक्तित्व को उभा रना । मध्यकाल में लक्षणा का अधिक सहारा लेनेवाले जो स्वच्छुंद प्रेमोमंग के कवि दिखाई देते हैं सबका व्यक्तित्व स्पष्ट पृथक दिखाई देता है । रसखानि झ्रालम ठाकुर घनश्रानंद बोधा ट्विंजदेव सब पृथक्‌-पुथक दिखाई देते हैं । भ्रन्यों से या चिजातीयों श्रौर सजातीयों दोनों की रचनाओं से इनमें से प्रत्येक की रचना श्रासानी से पृथक्‌ की जा सकती है । नई कविता के प्रत्येक कवि की रचना में ऐसी विशिष्ट पद्धति प्राय दिखाई देती है कि थोड़ा सा ध्यान देने से ही प्रत्येक को पृथक किया जा सकता है। यह्टी स्थिति छायावादियों की भी है । प्रमुख प्रत्येक छायावादी कवि एक दुसरे से स्पष्ट पृथक्‌ है । चाहे मध्यकाली न स्वच्छुंदता - मुलक प्रवृत्तिवाले कवि हों अथवा श्राघुनिक छाय वादी या स्वच्छंदतावादी कवि रूढ़ि चाहे किसी ने न ग्रहण की हो पर परंपरा थोड़ी बहुत सबकी रचना में घुली-मिली है । सब कुछ नवीन सहसा सामने नहीं श्रा गया है । पर नई कविता की स्थिति ही पृथक है। इसमें नई प्रमुख है कविता गोण हो चली । व्यक्तित्व के उभार के फेर में ऐसा न हो जाना चाहिए कि विकास की सोपातपरंपरा या पद्धति का एकॉंत लोप ही हो जाए । ऐसा नहीं है कि प्रयोगवादियों था नई कविता के कर्ताश्रों में कोई प्रशस्त-साध्य प्रयोगवैशिष्ट्य न हो । स्फुलिंग सभी में मिलते हैं पर सुषम संदीप्ति की सद्भावना सर्वेश्र नहीं मिलती । शक्ति हो तो सब कुछ हो सकता है निपुणता भर अभ्यास के न होने पर भी कुछ करामात दिखाई जा सकती है। पर सभी शक्त कहाँ होते हैं तब फिर निपुणता था ्ेम्यास मात्र से भी कुछ हो सकता है । निपुणता से भी मुह मोड़ लेने का फल श्रच्छा नहीं हो रहा है । इसी से कटु-तिक्त श्रालोचना होती है । श्रस्तु । लक्षणा मुख्याथं का बाघ करती है । इसी से उसके चक्कर में पड़ने से मुख्यायें या प्रकृत प्रसंग से दूर जा पड़ना पड़ा । पर कहा तद्योग से ही सब




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