श्री कृष्णाम्रतम | Shri Krishnamtratam
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
288
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्रीमत्परमइंसाम्रतानन्द गिरिविर चितमू । ७
जो सदा ग्रदुल-स्रभाव कारणरहित पर करुणा भरे ।
जिहिं नाममिससे अजासिलसें पाप भी भवकों तरे ॥
जो भत्यकां दे न्नह्मांविद्या निजस्वरूप हि करतहें ।
ताको तजां दे चित्त फल इखपाप ही अल्लसरत हैं ॥
इन इन्द्रियनके वहिसुखताक खशभाव-प्रभावसें ।
ऐसे सखाकों तज भये हम पाए पापस्रभावसें ॥
अब कवनबिधसें सिलटेंगे व खोजना ही ठीक है ।
नहिं मन लगे अब जगतसें जग चोकताप अलीक है ॥
वाकी कूपाबिन कवन वल है तांहिंके विज्ञानका ।
कत्तव्य हैं इक प्राथना हीं त्याग जग दुखखानका ॥
अस्त तिहारे चृत्तसें ऐसा हि समुझा जातहै ।
अब चहें कृष्ण-मिलापकों ही इम हिं इम दरसातहै ॥१८॥
हे नाथ गिरिघर पतितपावन कासतरू करुणा भरे ।
निजभ्र्य हितलग जगतमाहीं जगत-जीवन अवतरे ॥
इस खुना वेदतिद्दारसें ही रूप निजजन-हित भरा ।
चित्सदानन्द परेद्चा जिहिं संवन्धसें अघ भी तरा ॥
करतूतमल पुनि विस्ुखता-मलदेतुसें लज्ञा चढी ॥
नहिं आंख अभ्िसुख दोत प्रचुके हा कठिनता हीं पडी ॥
यद्यपि न हम हैं योग्य तौ भी प्रसुखभाव सदुल खुना ।
आये चारण नहिं दोष देखें इस हि श्रुति बुघजन सना ॥
इस भी सुना हैं अतिभावी जिनके न आश्रय एक भी |
आये चारण तकरही तिनकी मनोवाब्छित-टेक थी ॥
अब मैं हूं आके पडाहूं दरवारदानीमें खुखुख ।
सब है भरोस खमभावका नहिं गयो कोइ भी विसुख ॥
अस्त चहे है जाहिं सो सबेज्ञ-प्रडु भी जान हैं ।
“विन आपके है सुख कहां इम वेदके भी गान हैं ॥ २० ॥
User Reviews
No Reviews | Add Yours...