श्री कृष्णाम्रतम | Shri Krishnamtratam

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Shri Krishnamtratam by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रीमत्परमइंसाम्रतानन्द गिरिविर चितमू । ७ जो सदा ग्रदुल-स्रभाव कारणरहित पर करुणा भरे । जिहिं नाममिससे अजासिलसें पाप भी भवकों तरे ॥ जो भत्यकां दे न्नह्मांविद्या निजस्वरूप हि करतहें । ताको तजां दे चित्त फल इखपाप ही अल्लसरत हैं ॥ इन इन्द्रियनके वहिसुखताक खशभाव-प्रभावसें । ऐसे सखाकों तज भये हम पाए पापस्रभावसें ॥ अब कवनबिधसें सिलटेंगे व खोजना ही ठीक है । नहिं मन लगे अब जगतसें जग चोकताप अलीक है ॥ वाकी कूपाबिन कवन वल है तांहिंके विज्ञानका । कत्तव्य हैं इक प्राथना हीं त्याग जग दुखखानका ॥ अस्त तिहारे चृत्तसें ऐसा हि समुझा जातहै । अब चहें कृष्ण-मिलापकों ही इम हिं इम दरसातहै ॥१८॥ हे नाथ गिरिघर पतितपावन कासतरू करुणा भरे । निजभ्र्य हितलग जगतमाहीं जगत-जीवन अवतरे ॥ इस खुना वेदतिद्दारसें ही रूप निजजन-हित भरा । चित्सदानन्द परेद्चा जिहिं संवन्धसें अघ भी तरा ॥ करतूतमल पुनि विस्ुखता-मलदेतुसें लज्ञा चढी ॥ नहिं आंख अभ्िसुख दोत प्रचुके हा कठिनता हीं पडी ॥ यद्यपि न हम हैं योग्य तौ भी प्रसुखभाव सदुल खुना । आये चारण नहिं दोष देखें इस हि श्रुति बुघजन सना ॥ इस भी सुना हैं अतिभावी जिनके न आश्रय एक भी | आये चारण तकरही तिनकी मनोवाब्छित-टेक थी ॥ अब मैं हूं आके पडाहूं दरवारदानीमें खुखुख । सब है भरोस खमभावका नहिं गयो कोइ भी विसुख ॥ अस्त चहे है जाहिं सो सबेज्ञ-प्रडु भी जान हैं । “विन आपके है सुख कहां इम वेदके भी गान हैं ॥ २० ॥




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