श्रीमद राजचंद्र वचनामृत | Shrimad Rajchandra Vachnamrit

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Shrimad Rajchandra Vachnamrit by जगदीश चन्द्र - Jagdish Chandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषय-सूची विनिमय पन्नांक प्र ५१३ ऋद्धि-तिद्धिविषयक प्रश्न 'णह ५१४ समयका लक्षण ५२ ५१५ एक लौकिक वचन ५२ ५१६ देह छूटनेमें हर्ष विषाद योग्य नहीं पर ५१७ उदास भाव ४५३ ५१८ ज्ञानीके मार्गकें आशयकों उपदेश करनेवाले वाक्य ४५३-४ ५१९ ज्ञानी पुरुष अप ५९० ज्ञानका लक्षण ४ ५२१ आमकी आदर नक्षत्रों विछृति ४५६ ५९२ विचारदशा ४५६ ५२१३ अनंतानुव्ंधी कषाय ५७ ५९४ केंवलशान ५९७ ५२५ सुमुझुके विचार करने योग्य बात ४५७ ५२६ परस्पर दर्शनेंमें भेद ५८ +५२७ दर्दनोकी तुलना ९८ +५२८ साख्य आदि दशनोकी तुठना ४५९ ५२९ उदय प्रतिबंध अपर ५३० निवुत्तिकी इच्छा ५९ ५३१ सहज और उदीरण प्रवृति ४६० ५३९ अनंतानुबंधीका दूसरा भेद ६० ५३३ सनःपर्यवज्ञान ४६ ५३४ 'यह जीव निमित्वासी है' ४६१ ५३५ केवलदुर्शनसंबंधी दोका रू ५३६ केदलशान आरिविषयक प्रश्न ६२ ५३७ गुणके समुदायते गुणी मिन्न है या नहीं. ४६२ इस काठें केवलशान हो सकता है था नहीं ४६२ जातिस्मरण शान 'रेनरे प्रतिसमय जीव किस तरह मरता रहता है ४६३ केवल्दशीनमें भूत भविष्य पदार्थोका ज्ञान किस तरह होता है ५३८ देखना आत्माका शुण है या नहीं ! आः्माके समत्त शरीरमें व्यापक दोनिपर सी अमुक भागते ही क्यों शान होता है १ ४६४ शरीरमें पीड़ा! होते समय समस्त प्रदेवोंका रे ४६४ एक स्थानपर खिंच आना ६५ ३९ पदोका आये ६५ भर ० युवावत्थामिं विकार उत्पन्न दोनेका कारण ४६६ ५४१ निमित्तवासी जीवोंके संगका त्याग ४६६ प४२ ' अनुमवप्रकाद * ६६ प्रांक ५४३ धर्म, अधर्म आदिविषयक ५४४ आत्मार्थकी चर्चाका श्रवण ५४५ सत्यसंबंधी उपदेशका सार +९४६ एवंभूत दृष्टिसि ऋजुसून्र स्थिति कर +५४७ मैं निजत्वरूप हूँ पु८ “ देखत भूली रे ५४९ आत्मा असंग है ५५० आसत्मप्राप्तिकी सुलभता ५५१ त्याग वैराग्य आदिकी आवश्यकता ५५२ सब कार्योकी अ्रथम भूमिकाकी कठिनता ५५३ “ समज्या ते शमाई रहा ” +५५४ जे! सुखकी इच्छा न करता हो वह | नास्तिक, तिद्ध अथवा जद हैं ५५५ दुखका आत्यत्तिक अभाव ५५६ दुःखकी सकारणता ५५७ निर्वाणसार्ग अगम अगोचर है ५५८ ज्ञानी पुरुष॑का अनेत ऐश्वर्य ५५९ पठ अमूल्य है ५६० सतत जायुतिरूप उपदेश २९ वाँ। बे ५६१ “ समजीने शमाई रहा, समजीने शमाई गया 2 ५६९ सुमुझु और सम्यग्दष्टिकी तुख्ना ५६३ सुंदरदातजीकि अंथ ५६४ यथाये समाधिक योग्य रुक ५६५ सर्वसंग-परित्याग ५६६ लौकिक और शास्रीय अभिनिवेश ५६७ सब दुःखोका मूख संयोग ५६८ “ भद्धाज्ञान ठद्मा छे तो पण ”? ५६९ शास्रीय अभिनिवेश कं कभड७० उपाधि त्याग करनेका विचार कप७१ भू--त्रहम ५७२ जिनेपदिष्ट आत्मध्यान प७३ “ योग असंख जे जिन कह्या ” ५७४ सर्वसंगपरित्यागका उपदेश ५७५ परमार्ष और व्यवशरसंयम ५७६ आरंभ परिश्रहका त्याग ५७७ त्याग करनेका लक्ष ५७८ संसारका त्याग ५७९ सत्संगका मादत्य पड पर्ठ ४६७ ६७ है. ९ ९ ७० 8०9 ० ० ७० ४७४१ ७१ ४४१ है कक रे इज हरे दे छोड ७५ जप ४७५ है ७६ ७६ 'इछिईि 'इंछि जद हैक ६ ०




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