श्रीमद राजचन्द्र वचनामृत | Shrimad Rajachandra Vachanamrit

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Shrimad Rajachandra Vachanamrit by जगदीश चन्द्र - Jagdish Chandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स সার यक प्रन 1 द মীন হল ४५१ | ५४३ धर्म, अधर्मं आदिविषयक ४६७ ६९६ বি ॥ ४५२ | ५४४ आत्मार्थकी चर्चाका श्रवण ४६७ ५ देह ভা রা দ্য ४५२ | ५४५ रत्यसबधी उपदेशका खार ४६७०९ ९४ छूटनम हष विषाद योग्य नहीं ४५२ | #५४६ एवभूत दृष्टिसे ऋजुवृन्न स्थिति कर ५६९ सभाव ४५३ | +५४७ में निजत्वरूप हूँ ४६९ ५१८ जानीके सार्गके आशयको उपदेश ५४८ “ देखत भूली टक्े ” ४७० करनेवाले वाक्य ४५३२-४ | ५४९ आत्मा असंग ह त है १९ शानी पुरुष ४५५ | ५५० आतक्षप्राप्तिकी सुलमता ४७० ९२९० भानका लक्षण ४५६ | ५५१ त्याग वैराग्य आदिकी आवश्यकता ४७० ५२१ आमकी आद्र नक्षत्रम विकृति ४५६ | ५५२ सव का्यौकी भथम भूमिकाकी कठिनता ২৩০ ५२२ विचारदका ४५६ | ५५३ ““समज्या ते शमाई रहा” ४७१ ५२३ अनंतानुबंधी कपाय ४५७ | ५५५४ जो सुखकी इच्छा न करता दौ वदं ५२४ केवलज्ञान ४५७ नास्तिक; सिद्ध अथवा जद है ४७१ ५२५ मुमुक्षुके विचार करने योग्य बात ४५७ | ५५५९ दुःखका आ्त्यतिक अभाव ४७१ ५२६ परस्थर दशेनोंभे भेद ४५८ | ५५६ दुःखकी सकारणता ४७१ ५५२७ दर्नोकी तुलना ४५८ । ५५७ निर्वाणमार्म अगम अगोचर है ४७२ +५२८ साख्य आदि दर्शनोंकी तुलना ४५९ | ५५८ शानी पुरुषोंका अनंत ऐश्वर्य ४७२ ५२९ उदय प्रतित्रध ४५९ | ५५९ पल अमूल्य है ४७२ ५३० निवृत्तिकी इच्छा ४५९ | ५६० सतत जागृतिरूप उपदेदया ४७६ ५३१ सहज ओर उदीरण प्रवृत्ति ४६० २९. वो वषे ५३३ अनतानुबंधीका दूसरा भद ४६० | ५६१ ^ समजीने शमाई र्या, समर्जनि शमारई ५३३ मनःपर्यवशान ४६१ गया ” ४७४ ५३४ “यह जीव निमित्तवासी है' ४६१ | ५६२ मु॒मुक्षु और सम्यग्दृष्टिकी तुलना ४७५ ५३५ केवलुदशनसबंधी शका ४६१ | ५६३ सुदरदातजीके ग्रय ४७५ ५३६ केवलजान आदिविपयक प्रन ४६२ | ५६४ यथाथ समाधिके योग्य लक्ष ४७५ ५३७ गुणके समुदायसे गुणी भिन्न ই আা লর্থী ४६२ | ५६५ सर्वसंग-परित्याग ४७६ इस कालम केवलन्ञान हो सकता है या नदीं ४६२ | ५६६ छौकिक और शास्त्रीय अमिनिवेश ४७६ जातिस्मरण शान ४६२-३ | ५६७ सव दुःखोका मूल संयोग ४७६ प्रतिसमय जीव किस तरह मरता रहता है. ४६३ | ५६८ “ श्रद्धाशान लक्मा छे तो पण ” ४७६ केवलदर्शनमें भूत भविष्य पदार्थोका शान ५६९ शास्रीय अभिनिवेश ४७६ किंस तरह होता रै ४६३ | *५७० उपाधि त्याग कसनेका विचार ४७७ ५३८ देखना आत्माका गुण है या नहीं ! ४६४ | +५७१ भू--न्रक्ष ४७७ आत्माके समस्त शरीस्में व्यापक होनेपर +५७२ जिनोपदिष्ट आत्मध्यान ४७७ भी अमुक भागसे ही क्यों शान होता है ! ४६४ | ५७३ ¢‹ योग असख ज जिन कलया ” ४७८ शरीरम कोडा हेते समय समस्त प्रदेशोंका ५७४ सर्वसंगपरियागका उपदेश ४७८ एक स्थानपर सिच आना ४६५ | ५७५ परमार्थं ओर व्य॒व्टारखयम ४७८ ५३९ पदका अथ ४६५ | ५७६ आरंभ परिग्रहका त्याग ४७९ ५४० युवावस्थामे विकार उत्पन्न होनिका कारण ४६६ | ५७५ त्याग करनेका लश्च ४७९ ५४१ निमित्तवासी जीवोके सगका त्याग ४६६ । ५७८ ससारका त्याग ४७९ ५४२ ‹ अनुभवप्रकाश्च ' ४६६ | ५७९ सत्संगका माहात्त्य ४८०




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