मान - समीक्षण | Man Samikshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
52
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मान समीक्षग ) रे
तत्र पर ग्रपना प्रभाव डालता है एव नयन लाल श्रगारे के तुल्य बना वीभत्स
रूप घारण कर क्रोघ श्रवस्था में शस्त्र बरसाने लगता है श्रौर उस शब्द बोलने
वाले व्यक्ति को उत्त जक एवं करारा उत्तर देता है । उसकी मानसिक वृत्ति को
भकभोर देता है। मान को क्षति पहुचानें वाले शब्दों के प्रयोग को भूलकर
चह भी श्रपनें श्रन्तमंत में रहने वाले मान के साथी क्रोध को उद्देलित कर देता है ।
परिणामस्वरूप उसके मुह से भी ऐसे शब्द नि सुत होने लगते हैं कि जिससे
सामने वाले व्यक्ति के मानसतत्र पर श्रघिक प्रहार हो । इस प्रकार परस्पर
सधपं छिड जाता है। दोनों पुरुषों के होठ फडफडाने लगते है । दत-पक्तियाँ
कराकट करने लगती है । हाथ और पैर कापने लगते हैं । त्वचा मे ऊष्मा
व्याप्त हो जाती है । नाक से गर्म वायु वेग से निकलने लगती है एव दोनों स्वय
के स्वरुप को भूलकर युद्ध क्षेत्र मे उतर जाते है। इस प्रकार उन दोनों के
मान का यह इन्द्र देखते ही बनता है। परिणामस्वरूप दोनो की इतनी क्षति
होती है जिसकी सर्म्पूति होना अति ही कठिन होता है। उन दोनो के मान
में से जिसकी सहयोगी शक्तिया अधिक प्रवल होगी वे शक्तिया प्रतिपक्षी मान
एवं क्रोघ को दवा देगी । अपने आ्राप पर प्रतिपक्षी की विजय नहीं होने देगी।
अनुकूल श्रवसर मिलते ही वह पराजित-दवा हुझा मान पुन शक्ति के साथ
उभरेगा और विजयी मान को पछाड़ने की चेष्टा करेगा । किसी समय ससे
पराजित करेगा तो किसी समय स्वय पराजित होगा । इस प्रकार दोनो मान
रुपी योद्ाग्रों की कुश्ती उन वडे बड़े शारीरिक पहलवानों की तरह चलती
रहती है ।
दो पहलवान जब भिडते हैं तो एक टूसरे को क्रमश पछाड़ते रहते हैं ।
उस वक्त उन शारीरिक पहलवानों के वीच वाहर से दोनो के शरीर जूभते हुए
दिखते है। दोनो के रोप-खरोश एव शब्दों की ध्वनिया कर्ण गोचर होती है ।
दोनो के शरीर पर घात एव प्रतिघात होता है । पर सुध्म इप्टि से देखा जाय
तो यहा भी दोनो पहुलवानों के अन्तर में विद्यमान अ्रपने-श्रपने वल को
अभिमान का युद्ध ही ज्ञात होगा । उस युद्ध मे कोई भी मान स्थायी सर्प से
पराजय को प्राप्त नही होता, वरन् पराजय जनित ग्लानि उस शत्रुता में वही
काम करती है जो श्राग में घी करता है। ऐसी परिस्थिति में शारी रिक,
मानसिक, वाचिक, वौद्धिक एव आत्मीय शक्तियों का कितना द्वास होता है !
कितनी विपन्नता झ्राती है ! कितने कर्मवन्घन होते हैं ! दुरध्यवसायों के
परिणामस्वरूप समय जीवनीय शक्ति ह्लासोन्मूख हो जाती डर । इन सभी
चृत्तियों के वीच रहने वाला चैतन्य देव अ्रनेक जन्मों में सद्-अनुप्ठानों से प्राप्त
भ्रात्म-शुद्धि चक्ति एव पुण्य प्रवाह को चिनप्ट कर 'घ्रमोंची के घरमोची' की
वहावत को चरित्ताथे करना है । थ ही
इस दुर्दान्त गय को पराजिन करते के लिए उपयुक्त प्रकार का
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