गणितानुयोग | Ganitanuyoga

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[७] लोक-बिज्ञान और आत्म-साघना लोक-विज्ञान दो प्रकार का है :--लोक स्वरूप विज्ञान और लोक स्वमाव विज्ञान । लोक का आकार आयाम-विष्कम्म, मध्य भाग, समभाग, विशालता-विभाग, लोकस्थिति आदि का विदिष्- ज्ञान, लोक स्वरूप विज्ञान है । प्राचीन और मअर्वाचीन भूगोल-खगोल साहित्य के स्वाध्याय से लोक स्वरूप पा विज्ञान होता है । प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति, विनाश, जन्म-मरण, सुख-दुख, पुण्य-पाप, स्वाधंपरता, छल-छिंद्र, छणा, जुगुप्सा, राग देष, ईर्ष्या भादि का ज्ञान लोक स्वभाव विज्ञान है । आगमो के स्वाध्याय से लोक स्वभाव का विज्ञान होता है । यद्यपि लोक स्वरूप विज्ञान और लोक स्वभाव विज्ञान थे दोनों भिन्न-भिन्न हैं, तथापि इन दोतो का परस्पर आधार-आधषेय भाव का सबब है । क्योकि लोक स्वरूप का विज्ञान होने पर ही लोक स्त्रभाव का विज्ञान हो सकता है । इसी कार्य कारण-माव का द्योतक घ्में- ध्यान का एक प्रकार सस्थान-विचय है । आचायें उमा स्वाति ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि लोक के (सस्थान) स्वरूप का विचार करने में मनोयोग लगाना सस्थान विचय घर्मध्यान है । इसी प्रकार लोकानुप्रेक्षा * का भी यही भाव है । दशवैकालिक-सूत्र के अ० ४ मे मोक्ष-साघना का क्रम- बताते हुए कहा गया है कि जब आत्मा को परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है तो वह (सज्ञ) लोकालोक को जान लेता है । जेन-दर्शन का एक प्रमुख सिद्धान्त कमेंवाद है । भर कमंबघ से विरत होकर कर्म मुक्त होना ही आत्म- साघना है। बन्घ ससार है और बन्धमुक्ति मोक्ष है--ये दोनो इसी लोक मे है। शुमाशुम कर्मों का बन्घ, फलमोग और मुक्ति का चिन्तन-मनन ही. लोक-स्वभाव का चिन्तन-मनन है, किन्तु शुभाशुम कर्मों का वघ, फलभमोग भौर उनकी मुक्ति इस लोक मे होते है । [क] शुमाशुम कर्मों का बन्घ तीनो लोक मे होता है, किन्तु फलमोग भिन्न लोक मे होता है । [ख] मशुम कर्मों का फलमोग प्राय अघोलोक मे होता है । [गे लू कर्मों का फलमोग प्राय मध्यलोक और ऊध्वलोक मे होता है | [घ] भात्मायें करे मुक्त होती हैं मध्यलोक मे और स्थित होती हैं लोक के अग्रमाग पर । इन उक्त फलितार्थों की दृष्टि मे छोक स्वभाव के चिन्तन-मनन की जितनी उपादेयता आत्म साधना मे है उतनी ही या उससे कही अधिक लोक स्वरूप के चिन्तन-मनन की है । क्योकि लोक स्वरूप-विज्ञान की पृष्ठ भूमि पर ही लोक स्वमाव-विज्ञान-मवन का निर्माण समव है । मत लोक स्वरूप-विज्ञान आत्म-साघना का एक अभिन्न गग है । यदि आत्म साधक तीन लोक के स्वरूप का ज्ञाता होगा तो वह लौक स्वभाव का चिन्तन-मनन भी सहज माव से कर सकेगा । १... त्रिभुवन सस्यान स्वरूप विचयाय स्मृति समन्वाहारों संस्थान विचयों निगद्यते । तत्त्वाथें वृत्ति अ० €, सू० ३६, पृष ३-६ । २... अघस्तादुपरि तिरयंक च सर्वश्रा काशो$्नस्तोवतंने तस्पानन्ता काशत्यों लोकाकाशा पर सश्ञत्यातिशयेन मध्य प्रदेश लोको वतंते तस्य लोकस्य स्वभाव कि द सस्याना घनु चिन्तन कु्वतो भव्य जीवस्य तत्त्वज्ञानस्थ विशुद्धिभंवतीति लोकानुप्रेक्षा । तत्त्वाधवृति अ० €, सु० ७, पु० र८प८ |




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