भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना का एक सुझाव | Bhartiya Raj Bwawastha Ki Punarchana Ka Ek Sujhaw

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Bhartiya Raj Bwawastha Ki Punarchana Ka Ek Sujhaw by जयप्रकाश नारायण - Jai Prakash Narayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० अधिकाधिक सामाजिक न्याय, अवसर की समानता और औद्योगिक लोक- व्यवस्था से माना जाने लगा है। पहले राजनीतिक और आधथिक लोकतंत्र में जो भेद समझा जाता था, वह अब मिट गया है तथा दोनों का एकीकरण कर इसे पूर्ण लोकतन्त्र कहा जाने लगा है। मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि आज का लोकतंत्र किसी प्रकार के समाजवाद या कम्युनिज्म जैसे राज- नीतिक, आर्थिक सिद्धान्त से सम्बद्ध हो गया है । हालाँ कि यह सच है कि इन वादों ने उपर्यकित अथ में पुर्णरूप से लोकतंत्रात्मक व्यवस्था कायम करने का आदइवासन दे रखा था। परन्तु जहाँ तक कम्युनिज्म का सम्बन्ध है, यह देखने में आया है कि उक्त व्यवस्था के अन्तगंत लोकतन्त्र का विस्तार होना तो दूर रहा, राजनीतिक और आधिक दोनों क्षेत्रों में उससे लोकतंत्र का हनन ही हुआ है । अनुभव बताता है कि पहले की यह धारणा कि उत्पादन, वितरण एवं विनिमय के साधनों पर राज्य के स्वामित्व के फलस्वरूप आर्थिक स्वाधीनता, शोषण की समाप्ति और उत्पादित सामग्री के यथोचित (न्याय्य ) वितरण की अवस्था उत्पन्न होगी तथा राज्यनियंत्रण-मुक्त समाज की स्थापना संभव होगी--शभ्रमपुर्ण सिद्ध हुआ है । वस्तुस्थिति यह है कि हालत इससे उल्टी है। जहाँ तक समाजवादी-व्यवस्था का सम्बन्ध है, यह कहा जा सकता है कि कम्युनिस्ट-व्यवस्था की अपेक्षा इसमें हालत कुछ अच्छी है , क्योकि समाज- वादी-व्यवस्था के अन्तर्गत लोकतंत्रात्मक संस्थाओं के संरक्षण का विधान है । लेकिन शंका की बात यह है--और स्वयं समाजवादियों ने स्वीकार किया है--कि क्या केन्द्रीय सत्ता के हाथ में आथिक शक्तियों का पुंजीभूत होना, भले ही वह लोकतंत्रात्मक वातावरण में हो, आर्थिक लोकतंत्र की दृष्टि से समीचीन है ? साथ ही यह शंका भी उठती है कि क्या इसका अन्तिम परिणाम राजनीतिक लोकतंत्र को कुंठित कर देना तो न होगा ? यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इसमें दोष समाजवाद का उतना नहीं, जितना (१) राज्य की शक्ति के केन्द्रित हो जाने का और (२) व्यापक औद्योगीकरण का है । केत्द्रीभूत एकात्मक राज्य में नागरिक दासन (सरकार) में भाग लेने से वंचित हो जाते है, भले ही उसे चुनने या हटाने का अधिकार उन्हें प्राप्त रहे और इसका उपभोग भी वे कर सकें । लोगों का यह अधिकार भी दलीय प्रणाली के अस्तित्व सें आ जाने से एक प्रकार से सीमित हो गया है, क्योंकि इसमें चुनाव करने की उतनी स्वतंत्रता नहीं रह जाती । जहाँ तक व्यापक औद्योगीकरण का प्रद्न' है, प्रायः सभी समाजवादी




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