जिन सहस्रनाम | Jinsahatranam

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Jinsahatranam by आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये - Aadinath Neminath Upadhyeहीरालाल जैन - Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना श्घू श्र्थात्‌-हे भगवन्‌; हम झापके गुणोंकी कया स्तुति कर सकते हैं, क्योंकि आ्रापके शुण अनन्त हैं | हम तो तुम्हारे नामके रुमरण मात्रसे ही परम शान्तिकों प्रास करते हैं । भगवन्‌, यतः श्राप १००८ लक्षण- युक्त हैं; अतः एक हजार श्राठ नामोंसे ही ्रापकी स्तुति करता हूं । इस प्रकार हम देखते हैं कि जहां हमें शिवरइलनाम, विष्गुसहखनाम; या गणेशसइस्तनाम श्रादिमेंते किसीमें भी इस शंकाका समाधान नहीं मिलता है कि उनकी सहस्तनामसे ही स्तुति क्यों की जाती है, वहां हमें जिनसेनके सहसततनामम उक्त छोकके द्वारा इसका सयुक्तिक उत्तर मिल जाता है । सदस्नामक्री तुलना मूगाचारके उपयु क्त उल्लेखसे इतना तो स्पष्ट है कि सदस्तनामकी' प्रथा प्राचीन है । पर वर्तमानमें उपलब्ध वाड्यकें भीतर हमें संप्रथम सहसनामाका पता हिन्दू पुराणाँसे ही लगता है । उपरि लिखित तीनों सहस्तनामोमेंसे मेरे ख्यालसे विष्णुसइसनामं सबसे प्राचीन है; क्योंकि, वह मददामारतके झनुशासन- पर्वके अन्तर्गत है | जेनवाड्ययमें इस समय चार सइस्तनाम उपलब्ध है, जिनमें जिनसेनका सहस्ननाम ही सचसे प्राचीन है | जिनसेनाचा्ये॑ काव्य, अलंकार, धर्मशात्र, न्याय आादिके प्रौद विद्यान, श्रौर महाकवि थे; श्रौर इसका साक्षी स्वयं उनका मददापुराण है । _..... श्रा० जिनसेनके पश्चात्‌ दूसरे जिनसइस्ननामके स्वयिता ० देमचन्द्र हैं । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हदेमचन्दर एक महान आचार्य हो गये हैं श्रौर इन्होंने प्रत्येक विपय पर श्रपनी लेखनी चलाई हैं । झापको परवर्ती श्राचार्योने 'कलिकालसर्वज्' नामसे सम्बोधित किया है । हेमचन्द्रने अपने सहसख्नामका नाम “श्रह- त्सदसनाम” रखा है । इस श्रहृत्सदखनामका मिलान जब हम झा ० जिनसेनके सहसखनामके साथ करते हैं, तो इस बातमें कुछ भी सन्देद नहीं रहता कि कुछ न्छोकों श्रौर नामोंके देर-फेरसे ही श्रहृत्सहलनामकी स्चना की गई है । नवम शतककी स्चना अवश्य स्वतंत्र हैं। शेप शतकोंमिं तो प्रायः जिनसेन-सहस्ननामके शोक साधारणुसे शब्द-पिवर्तनकें साथ ज्योंकि त्यों रख दिये गये हैं । पाठक प्रस्तुत संस्क्णुमें दिये गये देमचन्द्रके सदस्ननामके साथ मिलान कर स्वयं इसका निर्णय कर लेंगे । उक्त दोनों जिनसदखनामोंकि पश्चात्‌ पॉण्डत श्राशाघरके प्रस्तुत सहसनामका नम्बर आता है । आशाधघरके सहस्नामका गंमीरता-पूर्वक अर व्ययन करनेसे पता चलता है कि उन्होंने श्रपने समय तंक रचे गये समस्त जैन या जेनेतर सदखनारमोका अवगाइन करनेके पश्चात्‌ ही शपने सदस्तनामकी स्वना की है । यह्दी कारण है कि उनमें जो त्रुटि या श्रसंगति उन्हें प्रतीत हुई, उसे उन्होंने श्रपने सहसनाममें विल्कुल' दूर कर दिया । यद्दी नहीं, चल्कि श्रपने सदल्तनाममें कुछ ऐसे तत्वॉका समावेश किया; जिससें उसका महत्व झपने पूर्ववर्ती समस्त सदसनामासि कई सददस्तगुणा अधिक हो गया है । पं० आशाधघरजीने संभवत: अपनी इस पिशेषत्ताकों स्वयं ही मली-भांति अनुभव कित्रा है और यही कारण है कि उठके श्रन्तमें स्वयं ही उन्हें लिखना पढ़ा कि ““यही परम मंगल है) लोकोत्तम है, उल्वण शरण है, परम तीर्थ है; इए साघन है श्र समस्त कलश तथा संकेशके च्यका कारण है ! ”” अ्न्तमें उन्होंने यहाँ तक लिखा है कि इस सदसनामके श्र्थका जाननेवाला तो जिनके समान है। इससे भ्रधिक श्र क्या महत्व बताया जा सकता था | भट्ारक सकशकीर्तिने एक संक्षित श्रादिपुसणकी स्वना की है, चौथा जिनसइलनाम उतीसे ही उदृध्त किया गया है । यह कब्रका सवा है, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता; तथापि यह झाशाघर-सहसत- नामसे पीछेका ही है, इतना सुनिश्चित है । यदद कई जगद अशुद्ध है; दूसरी प्रति न ,मिलनेसे सब्र शुद्ध नहीं किया जा सका । इसकी स्चनाका झ्राधार झा० जिनसेन और शशाधरका सइसनाम हैं; ऐसा इसके पाठ से ज्ञात द्ोता है ।




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