धूप के पखेरू | Dhoop Ke Pakheru

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Dhoop Ke Pakheru by शिवरतन थानवी - Shivratan Thanavi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धासनयाग से प्रवपरवादियों से । [ दुम मेरे बसे पर बस्दू पर रथरुर शिशार करना चाहते हों -- अपने हाय यून थे से बिना ही ! ] सीना तो मेरा भी फौनादी है लेकिन इरता हूँ अ्वने पीछे यड़ी बालून्दीवार हे 1 [ तुम मुक्के शहीद बनाकर चेरी प्रतिभा बनवाने बी पाड़ में भ्र्धोपाजन करना चाहते हो! ] माष्डे तो मैं भी उठा सकता हूँ लेकिन ढरता हूं भ्रास-पास खड़े चमचों से । [ तुम मुक्ते निकाल फेकना चाहते हो-- दूध में मां गिरी सखी की तरह । झौर खुद शवकर बनकर घुलना चाहते हो ! ] इस सभ्य समाज में झब तक श्रौरों के ही हाथों में भ्डे थमाये मैंने भण्डा थामकर झागे नहीं चला मैं । [ आगे चलने में खतरा रहता है और खतरा मोल लेना समझदारी नहीं-- कमन्से-कम इस सम्य समाज में ! ] अब तक थौरों के हो सिरों पर टोपियाँ रखी मैंने टोपी पहन कर मंत्र पर नहीं आया मैं 1




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