हे ज्ञानदीप आगम प्रणाम | He Gyandeep Aagam Pranam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
98
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about रमेशचंद्र जैन - Rameshchandra Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ः 10
पै पौ मै प्री मर मै मे पर मे दौर मर मर मै मै मर मै प्र दौर मे प्र मै मो म् मै द मर म
है, अत: मैं अपना आचार्य पद तुम्हें सौंपता हूँ ।'' अपने गुरू के मुख
से यह वचन सुन मुनि विद्यासागर आश्चर्यान्वित हो गए । भावुकता के उन
क्षणों में वे अपने. कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सके । आचार्य श्री ने उन्हें
पुन: समझाकर अपने आसन का त्याग कर दिया और मुनि बिद्यासागर जी
को अपने आसन पर बैठा दिया, स्वयं नीचे आसन पर बैठ गए । विरक्ति
के इन क्षणों में उन्होंने आचार्य विद्यासागर से निवेदन किया -
हे गुरुवर आचार्य विद्यासागर जी महाराज ! मेरे ऊपर कृपा करो, मैं
आपके सान्निध्य में सल्लेखना ग्रहण करना चाहता हूँ, में ऊपर अनुग्रह कीजिए।
आचार्य श्री विद्यासाधर जी ने अपने गुरु के भावों को भली भाँति
हृदयज़म कर उन्हें सल्लेखना ग्रहण करायी । उन्होंने धीरे-धीरे समस्त रसों
का त्याग कर अन्त में जल का भी त्याग कर दिया और समता भावपूर्वक
ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या (१ जून १९७३) के दिन प्रात: दस बजकर ५० मिनट
पर देहोत्सर्ग किया ! यद्यपि उनके नश्वर शरीर का अन्त हो गया, किन्तु
वे अपनी साहित्यिक मनीषा और चारित्र महिमा से युगों-युगों तक लोगों के
हृदय में जीवित रहेंगे ।
आचार्य श्री ज्ञानसागर : मनीधियों की दृष्टि में
आचार्य श्री विद्यासागर -
अपनी भुजाओं द्वारा अपार सागर को जिस प्रकार पार करना कठिन
है, उसी प्रकार गुरू की महिमा का मन में विचार कठिन है, किन्तु उस
सागर के तट पर जाकर विनयाज्जलि अर्पित कर सकते हैं, इतनी क्षमता
तो हमारी है । आचार्य ज्ञानसागर जी ने जो दायित्व मुझे दिया है, उसका
निर्वाह करने का ध्यान जीवन की हर घड़ी में चाहे दिन हो या रात हर
समय विद्यमान रहता है । चलना कठिन है, चलाना उससे भी अधिक कठिन
है । बहुत चलने वाले व्यक्ति को भी ऐसा लगता है कि चलाने की क्षमता
न हो । बहुत बड़ा विद्वान भी पढ़ाते समय 'ऐसा लगता है, जैसे स्वयं पढ़
रहा हो । पुत्र पिता का उत्तराधिकारी होता / है, पिता अपना वैभव अन्त में
पुत्र को सॉप जाता है । वह चाहता है किं जो परम्परा चली आ रही है,
User Reviews
No Reviews | Add Yours...