अशोक | Ashok

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Ashok by रामलोचन शरण - Ramalochan Sharanश्री लक्ष्मीनारायण मिश्र -Shri Lakshminarayan Mishr

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श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र -Shri Lakshminarayan Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऋक १, दृश्य २ दूसरा दृश्य बेक्ट्रीया, ऐंटीओकस के महल खरे सटा बाग ( डायना एक खिले हुए गुलाब की डाद्वी पकड़कर खड़ी हे, घड़ी-भर दिन दोष ) डायना--यद्द गुलाब आज खिल षठा, कलर अभी तक कली था, और परसखों शायद अभी पूरी कली भी न आई थी । कोड़े वद्द भी दिन था, जब यहाँ इस फूल के कोई भी चिह्न नहीं थे । किन्तु नहीं, यद्द पेड़ लगा ही क्यों था ? केवल फूलने ही के लिए तो ? यदि फूल न थाते, तो इसके जीवन का चरेश्य क्या दोता ? इसने फूलने के लिए काइ प्रयत्न किया ? नहीं, फूल स्वयं भरा गया । फूलना ही ता इस्रका स्वभाव है 1 न फूलना तो इस्रकी ध्रस्वाभाविकता होती । मालूम पढ़ता है कि प्रकृति के ये थोढे-छ नियम हैं, जो सवंत्र दीख पढ़ते हैं मुकमें भी और इस गुलाब में भी । यद्द गुलाब आज खिल उठा, और में-- ( कुछ सोचकर ) हाँ, में भी तो अब खिल छठी ; किन्तु मेरे श्र इसके खिल्ने में कुछ 'अन्तर है, और बह--गुलाव ने अपना हृदय ख्रालकर दवा में सुगन्धि उड़ा दी दे--जो चादेगा, वह भों पायेगा--जो न चाहेगा, वह भी पायेगा । और में--में उस्र सुगन्घि को 'अपने दी भीतर दवा रददी हूँ; चादती हूँ, कहीं इस्रका किसी को पता न चले । इस गुलाब की सुगन्धि चारों ओर फेलकर आज दी स्रमाप्त हो ज्ञायगी--छौर यह--इसका अन्त नहीं है--इस्रका अन्त में सदद न सकूँगी । मुभके क्या दो श्ह




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