अंधा युग - एक सृजनात्मक उपलब्धि | Andhaa Yug - Ek Sujanatmak Upalabdhii

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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14. श्न्घा युग' : एक सुजनात्मक उपलब्धि कितना सुनसान हो गया है वन जाग रहा हूँ, केवल मैं हो यहाँ इमली के, बरगद के, पीपल के पेड़ों की छायाएं सोई हैं” फिर सारा दुश्य--बरगद के पेड़ पर सोए बायस समूह का उदुक द्वारा विनाश सूच्य दिखा कर जैसे ही उलूक कब्वें के कटे पंख लेकर बधोल्लास का ताण्डव करता है, अ२वत्थामा भी श्रहसास कर चीख उठता है-- मिल गया, मिल गया मातुल मुझे मिल गया 1 ** 2 तत्पश्चातू अश्वत्थामा के पाण्डब-दिविर में पहुँच कर उसके द्वारा किए गए. प्राय: सभी शत्रु संहारात्मक तथा र१दु०कत्य समाघानात्मक दृश्यों में तो केवल मगवान्‌ शिव के अ।रग्मिक श्रवरोध तथा फिर सस्तुष्ट हो श्रदवत्थामा को वरदान देने के दृद्यों में तनिक से परिवर्तन को छोड़ प्राय: संस्पूण कथावस्तु में महाभारत व “प्रन्धा युग” का बिम्ब-प्रतिविम्ब भाव या रूपान्तरण जेसा साम्य है । _.... शिवावरोध वरदान के चित्र को व्याख्येय किया जा सकती है। वीर श्रश्वट्थामा पाशवीवृत्ति धारण करके सुप्त पाण्डव घांचाल वीरों का संहार करने पाण्डव- शिविर में जाते हैं तो उन्हें श्रागे प्रहरी-सम संरक्षक रूप में मगवानू दिव के दर्शन होते हैं । पहले तो अरवत्थामा श्रपने सारे ध्रस्त्र-दास्त्रों का प्रयोग करतां है; किन्तु जब वे सभी श्रस्त्र-शस्त्र शिव के एक रोम में सभा जाते हैं तो श्रदवत्यामा भ्राधुतोप दिव को अ्रस््व करने के लिए स्तुति करता हैँ, उक्त प्रसंग प्राय: उमयत्र (महाभारत व भ्न्था युग) में सभान है । यथा-- 'तत्रभूत मह्ाकाय चन्द्राके सदुशधुतिम्‌ सो पदयद्‌ द्वारमाश्रित्य-तिष्ठन्त॑ लोमहपणम्‌ ॥। >्ट रद 2८ हि अयश्यत्कृतमा काश मना. का जनादंन: तददुमुततम दुष्टट्वा-द्रोण पुत्रों निरायुघा: ॥' * तथा- न चेतदमि जानामि-चिन्तयन्तपिं.. सर्वेथा घ्रवं येयं भ्रषर्मे में प्रवृत्ता कलुषा मतिः ॥ 4 ््र ९ ८ सहि. देवों. त्यगाहेवान्‌-तपसा विक्रपेण च पर्माच्छरणमम्येमि-गिरिदां भूलपणिनम्‌ ॥' * 1. मन्धा युग : भारती : पृ०् 68 2. बही : पु० 69 3. महीभारत : व्यास : सौप्तिक पर्व : अध्याय 6 : पृ० 9 ; श्लोक 3 से 158 4. वही : पृ० 190: श्लोक 30 से 34 ं




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