अन्तर्राष्ट्रीय कानून | Antrarastriye Kanoon

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Antrarastriye Kanoon by हरिदत्त वेदालंकार - Haridatt Vedalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(४) परल्िहवाँ झध्याप--राजनयिक . प्रतिनिधि--राजदूत . श्रौर . वाशिज्यदत १ (पछा1०घाकए ठै एड शएं (०पडघाड) इडद-रेद प्राचीन एव सध्यकाल मे दूस प्रथा, पूृ० देदे5 , राजनयिक सम्बन्घों का वियना श्रभिसमय, पृ ३३४, इनों को श्रेरिगयाँ श्र प्रकार, पृ० ददे६, (क) राजदून, प्र० ३४०, (ख) पूर्गाविकार मस्त्री तथा श्रमाधारण दूत, परत ४०, (से) निलासी सनवी, प्ृ० ४, (व) कार्यदूल, पू० देव, द्रुतो की सियुवित, पृ० रदीफरस्थीय व्यक्ति, पूृ० ३४४ दूतो के कायें, पु० र४५+दुत्ती के विशेषाधिकार श्रौर उन्मुक्तियाँ, पु० 3४६ . येयक्तिक सुरक्षा तथा अवघ्यता, प्ृ० रे४६, राज्यक्षेजकाहता, पृ० र५१८ फौजदारी न्पर्यालयों के क्षेवराधिकार से सुक्ति, प्ू० इ५०, दीरानी न्यरयालयों के क्षेव्ाधिकार से. सुश्ति, पृ ३५३, यही देने के कार्य से सुक्ित, मू० देश, करो से सुद्ति पृ रे५ ५, उपासना ता. स्धिकार, पृ० ३५६, पत्र-व्यवद्वार की स्वतन्त्रता, प्रृ० 3५६, सीसित क्षेत्राधिक्रार, यू० रे , दूत के भसुयासी सर्ग के विदोधाधिकार प्ृ० ३५६ , उन्मुक्तियो का श्रारम्भ भ्ौर समाप्ति, प्र० ३४५७, दौत्यकार्य की समाप्ति के वारण, पृ० ३४८, बाशिज्यदूत, पृ ६२, वाशिज्यदत विपयुक राम्वन्थो का १९९६३ का चियना श्रशिसमय, पृ० ३६४। याणि उप द्त पे फ, प्‌ [हुवा सिच्याय--सम्धियाँ (एए८य00०5) दे६६- संन्घियों का स्वरूप, पृ० ३६६, सन्धघि श्रौर सचिदा पृ० ३६६, सन्मिवाची कुछ दाब्द, पू० 3६७, (१) अभिसमय, प्ृ० २६७, (२) प्रोतोकोल, प्र ३६७, (२) समकौता, पृ ३६७, (४) व्यवस्था प्र ३६८. (५४) # प्रामाणिक विवरण, पृ० इधर, (६) परिनियम पु 3६८. (७) घोषणा, पू० ३६८, (5८) अस्थायी प्रसाली, प्र० इ६्८ (६) सपत्रो का विनिमय, प्र० ६८, (१०) चरग कानून, पृ० उन (११) सामान्य कानून, प्र रेइ८, सन्घि सम्पादन के झ्ाट घावध्यक सम प्र० दे६, राह मिसन आर सभिलस्यता, पु द७० सन्यि का पास दोय, पूल रे७०, पजीकरण भर प्रकाशन, पुल २७४० स्यिया का नियास्वय पुल २७९, सस्धि की बनावट, पृ० 3७१. सन्धिदा का वर्गीकरण पू० देख, हक) राज नीतिक सन्चियाँ, पृ० इछर , (खड़े व्यापारिक सस्वियाँ, पु दर (से) सामाजिक सत्घियाँ, छू० इ७०२, (घ) दीवानी न्यग्यसम्बन्धी सन्घियाँ, प्ृ० इ७२, (डे) फौजदारी न्यायविपयर्क सम्धिया प्र दे७३डे. अवैध सन्घियाँ, पृ० इे७३े, रान्थिपालन वा उपाय पृ० ७४८, सन्घिविपयक दो सिद्धान्त * (क) सन्घियों की पणितता, पुन च८५, (खध रियित्ति की झपरि- ब्तनदीसता, पृ० ३७५, सन्धिया की समाप्ति, पू० ३७९६, सन्दधियों पर युद्ध छिडने वा श्रभाव, पृ द८०, सन्धियों की व्यास्या के सामान्य सिद्धार्त की व्यारया सामान्य सिद्धारत,




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