कांग्रेस का इतिहास | Congress Ka Itihas

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Book Image : कांग्रेस का इतिहास  - Congress Ka Itihas

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हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।

विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन्‌ १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन्‌ १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन्‌ १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावनां दमारी सा्ट्रीय मददासभा (का्मेस) पचास वर्ष पूरे, पदले-पहल, कुछ थोड़े-से उपस्थिति में, बम्बई में हुई थी | जो लोग यहीं उपस्थित थे मे निवोचित प्रतिनिधि तो जा जर्क, परन्तु थे सच्चे जम-सेंवक । बस, तभी से यदद मारतीय जनता के लिए, धयत्न कर रही दे । यद ठीक दे कि प्रारम्भ में इसका लददय श्निरिचित था, लेकिन शासन के ऐसे प्रजातन्त्री रूप पर जोर दिया हे जो भारतीय जनता के प्रति जिम्मेदार इस विशाल देश में रदइनेवाली सब जातियों एव श्रेणियों का प्रतिनिधित्व हो । इस शा श्रौर विश्वास को लेकर दुआ था कि ब्रिटिश-राजनीतिजता श्ौर जिटिश-सरकार । 'उेंगे श्रीर ऐसी सस्थाश्री की स्थापना करेंगे जो सचमुच प्रासिनिधिक हों श्रौर जिनसे को मारत के हित की दृष्टि से भारत का शासन वरने का श्षिकार मिले । काप्रेस का दास इस श्रद्धा-युक्त विश्वास के निदर्शक प्रस्तावा श्रौर भाषणों से ही मरा हुश्रा है | मागें हैं वे भी ऐसे प्रस्तावों के दी रूप में हैं, जिनमें यद सुमाया गया दे कि कथ चादिएं. श्रीर कीनसी श्रापत्तिबनक कार्रवाइया रद होनी चाहिएं; श्रौर उन सबका श्र दी रदी हे, कि यदि ब्रिटिश -पार्लमेएट को भारठ वी इस स्पिति व. तपा. भारतीयों मलीमांति पता लग जाय हो वे गलतियों को दुबस्त करके श्स्त में दिन्दुस्तान बेशकीमत बखशीश दें देंगे। लेकिन डिख्दुस्तान श्रौर इग्लैडड में ज़िटिश-सररबर ने की उनसे यदद श्रारा। श्रौर विश्वास धीरे-धीरे पर सम्पूर्ण रूप में नष्ट हो चुके हैं । राष्ट्रीय जागति बदूती गई स्यो-त्यो ब्रिटिश-सरकार का रुख भी कटोर-से-ऋठोर दोता शासन की सदिच्दाश्रों पर प्रारम्म में इमाय जो विश्वास था उतरमें लॉर्ड कर्जन के, को विभक्त कर दिया था, शातन काल मैं धक्का लगा । इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के श्ान्दोलन हुआ बह सर्व-छाधारण में उठती हुई राष्ट्रीय-ज,यति की लइर का दी थे भबीछवीं सदी के श्रारम्भ में रूस पर जापान की विजय जैसी विश्वव्यापी घटना झो से दु नहीं थी । फिर भी झप्रेजों पर से इमास विश्वास बिलकुल उठ नहीं चुका था, इस! समय कुछ ठो इस विश्वास के हो कारण, जो कि बंग-भग रद दो जाने से फिर स और बुछ सारी परिस्थिति को श्रच्छु! तरइ न रुमक सकने की वजूद से, निटिश-स के समय उसे सद्दयठा देने की ज़िटिश-सरकार की पुकार पर देश ने उसझा साथ इस सेकट-काल मे जो बहुमूल्य रुायता को उसकी सत्र जिटिश-राजनोतिनों ने भारतीयों के मन में यद शा पेदा कर दी गई कि जो युद्ध परत्यद्नतः राष्ट्री के : सिद्धान्त ठथा प्रजादन्त्री-शासन को मुरद्धित करने के उद्देश से लड़ा «जय रद दे




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