महात्मा गाँधी के विचारों पर वेदांत का प्रभाव | Mahatma Gaandhi Ke Vichaaron Par Vedaant Prabhaav

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Mahatma Gaandhi Ke Vichaaron Par Vedaant Prabhaav by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नस को परिश्रमपूर्वक अभ्यास करके अपनाया । वकालत का पेशा उन्हे बहुत आकर्षक नहीं लगा और इसलिये अपने जीवन मे अनेक प्रयोग करने के लिये उन्हे अवसर मिले । लदन मे मैट्रिक-परीक्षा के क्रम में उन्होंने लैटिन, फ्रेच, इग्लिश और प्रारम्भिक विज्ञान की जानकारी हासिल करने के लिये व्यापक बौद्धिक साधना की । उन्होंने पाश्चात्य नृत्य और संगीत सीखने की भी कोशिश की, हालॉकि वे इसमे सफल नहीं हो सके । लेकिन वे अपना बहुत सारा समय पुस्तकों, परिचर्चाओ विचार गोष्ठियो और व्यक्तिगत चर्चाओ मे लगाकर युरोप के बहुत सारे नैतिक, धार्मिक और यहाँ तक कि आहार सम्बन्धी आन्दोलन से भी परिचित हुये । यही नहीं, उन्होने युरोप के अनेक साहित्यकारो और कलाकारों के माध्यम से भारतीय सस्कृति की कुछ महान कृतियो को जाना और उनके महत्व को समझा । एक दिन अर्नाल्ड की 'एशिया की ज्योति' (लाइट आफ एशिया) नामक पुस्तक ने भगवान बुद्ध के जीवन का मर्म-स्पर्शी प्रभाव उन पर डाला और अर्नाल्‍्ड कृत 'श्रीमद्‌ू भागवद गीता' का अग्रेजी पद्यानुवाद ने उन्हे गीता का अनन्य भक्त बना दिया । उन्होंने ईसाई धर्म की पुरानी पुस्तक ( ओल्ड टेस्टामेट) मे तो. डुबकियाँ लगायीं ही थी, नवीन पुस्तक भी पढकर वे अत्यन्त प्रभावित हुये थे । उन्होंने स्वय ही इस प्रभाव का वर्णन करते हुये लिखा है, न्यू टेस्टामेट ने तो मुझ पर अद्भुत प्रभाव डाला और विशेषकर 'पर्वत के उपदेश ने तो सचमुच मेरी आत्मा को झकृत कर दिया । विशेषत यह संगीत कि - 'तुम दुष्टो के प्रति हिसा का भाव न स्खो । जो तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड मारे, तुम अपना बायॉं गाल उसके सामने कर दो ।' मै गीता से उसकी तुलना करने लगा । मरे किशोर जिज्ञासु मन ने ' गीता' , 'एशिया की ज्योति' और 'पर्वत के उपदेश' के विचारों मे समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया । 'त्याग ही धर्म का मूल है' इस बात ने मुझे बेहद परेशान किया 1” ब्रहमसमाजियों और उनके साहित्य से सम्पर्क होने के कारण उनके हृदय में धर्म-समन्वय के लिये आन्दोलन करने की प्रेरणा हुई । कार्लाइल की प्रसिद्ध पुस्तक 'वीर पपवपत्पततरल्तातरततववतवादातपलततातसारतवतवत, और वीर पूजा' से उन्होने पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब की महानता, वीरता और साधनामय कररगशाशटलव्टरकमवावर रवि, मु, आत्म-कथा - पृष्ठ-92




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