शहर - ए - लखनऊ | Shahar Ae Lucknow

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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18 शहर-ए-लखनऊ हासिल नहीं होती है । ऐसा कहा जाता है कि रामचन्द्र जी जब लंका पर विजय- श्री हासिल कर पुन अथोध्या लौट कर आये तो लखनऊ उन्होंने जागीर स्वरूप लक्ष्मण जी को प्रदान कर दिया । लक्ष्मण के निवास से गोमती नदी के तट व आास- पास के क्षेत्रों में एक बस्ती आबाद हो गयी जिसका नाम लक्ष्मणपुर पड़ा । इस बस्ती का केन्द्र लक्ष्मण टीला था । ऐसा कहा जाता है कि इस टीले पर एक बहुत ही गहरा कुआँ था जिसका सम्बन्ध पृथ्वी को अपने फन पर उठाये शेपनाग से था । इस कारण यह कुआँ बड़ा ही पवित्र माना जाता था | प्राचीन समय में लखनऊ एक पर्वित्न तीर्थ स्थल के रूप में विख्यात था । गोमती नदी आदि गंगा के नाम से जानी जाती थी और लखनऊ छोटी काशी । ऐसा भी कहा जाता है कि महाराजा यूधिष्ठिर के पोते राजा जनमेजय ने लक्ष्मण टीले के आस-पास का काफी बड़ा इलाका तपस्थवियों ऋषियों और मुनियों को सौंपा था । इन्होंने यहाँ जगह-जगह अनेक आश्रम बनाए । ऐसे अनेक प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं जिनसे पता चलता है कि 1000 ई० पूर्व यहाँ टूर-टूर से तीथे यात्री आते थे । गोमती नदी के किनारे ही पश्चिमी क्षत्र में ऋषि कोण्डिन्य का आश्रम था । यह स्थल आज कुड़िया घाट के नाम से जाना जाता है । जब लखनऊ के धार्मिक महत्व की चर्चा चल रही है तो सुयंकुण्ड का जिक्र करना बेजा नहीं होगा । यह तो सवेविदित है कि सुयंवंशीय राजाओं ने एक लम्बे अरसे तक उत्तर भारत में शासन किया । अपने शासन काल के दौरान अयोध्या बहराइच लखनऊ सीतापुर आदि जिलों में तमाम सुर्यंकुण्ड बनवाये । किसी ज़माने में लखनऊ का सुर्यकुण्ड भी पावन तीथे स्थल रहा । आइने-अकबरी में इस सुरज- कुण्ड के धार्मिक महूत्व के सम्बन्ध में चर्चा की गयी है । इस कुण्ड के चारों ओर एक विशाल मेला लगता था । लोग दूर-दूर से इस मेले में आते भर पवित्न कुण्ड में स्नान किये बिना न जाते । इसके जल में खड़े होकर लोग मनौतियाँ मानते--पूरी होने पर हर हालत में मेले के दिन पहुँच कर अपनी मानी हुई सनोतियों के अनु- सार गरीबों को दान आदि व ब्राह्मणों को भोजन कराते । हिन्दू धर्मान्‍्तगंत तमाम संस्कार यथा--मुण्डन व नामकरण आदि इसी कुण्ड के पास करवाना उत्तम माना जाता था । इस कुण्ड की बड़ी मान्यता थी । नेत्नदोष काँवर कोढ़ खुजली पेट की बीमारियों से लोग जब पीड़ित होते तो कुण्ड में स्नान कर उसका पानी पीते और निजात पाते । सूर्य ग्रहण के दिन स्नान करने वालों की इतनी भीड़ होती थी कि साँस लेना दूभर हो जाता । आज भी कातिक स्नान पर एक विशाल मेला कुण्ड के इद-गि्द लगता है जो तकरीबन एक महीने तक चलता है। बस समय के थपेड़ों के साथ स्नान करने वालों का स्थान बदल गया है। लोग अब सुयंकुण्ड में स्नान करने की बजाय गोमती तट पर बने घाटों पर चले जाते हैं । व




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