विश्व भारती पत्रिका - भाग 9 | Vishva Bharti Patrika - Vol 9

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Vishva Bharti Patrika - Vol 9 by राम सिंह तोमर - Ram Singh Tomar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२१६ चिश्वभारती पत्रिका करते हैं।. सुतरां इनको अनुभूति 'यह' व 'में' इन दोनों की सामानाधिकरण्य है।. भर्थात ये महमाव में आरोपण करके, अनुभव के भेदांश को डूबा कर 'इद अद” रूप बोध प्राप्त करते हैं। ये बिख को अपने शरोर के समान देखते हैं, जिसमें भेद भी रहता है, अभेद मी। योगि-गण इसको डैइबर को अवस्था कदते हैं ।. यह हुआ प्रबुद्ध आत्मा का विवरण | प्रबद्ध अवस्था से सुप्रबद्ध भवस्था तक आत्मा की उन्नति आवश्यक है ! किन्तु प्रबद्ध दशा से सुप्रबद्ध दशा में जाने के लिए पहले एक मध्य अवस्था प्राप्त करना, फिर उसका त्याग करके भग्रगति पाना होता है। मभेदज्ञान अथवा केवत्य 'दमव' नाम से परिचित है। जो इस अवस्था को प्राप्त करते हैं, उनके निकट इद रूपों प्रकृति का विषयीभूत जेय पदाथ अह् रूपी भान्तरिक पद में निमम हो जाता है । इस निमम माव की प्रकृति को 'निमेष' कहा जाता है। यह विमश दाक्ति द्वारा घटित होता है । यह भवस्था सदाशिव की स्थिति के अनुरूप है--इसमें अहंमाव द्वारा आच््छादित अस्फुट इदंसाव विद्यमान रहता है ।. य३ अवस्था स्थायी नहीं है। जब यह आविभूत होती है, तब अपने स्वरूपभून प्रकाश में एक बार मश्न और उसके बाद उन्मम--इन दोनों रूपों का ही मजुमव होता है ।. मम रुप को निमेष कहा जाता है एवं उन्मम्र रुप को उन्मेष कहा जाता है जसे समुद्र में कभी तरट्ादि उठती हैं और कभी लीन हो जानी हैं, पर दोनों दशारओं में समुद्र समुद्र ही रहता है, ठीक उसी प्रकार शिवादि विश्व प्रकाशात्मक रूप में ही प्रकाश रूप से उन्मीछित होता है; भर फिर प्रकाश में ही विष्टीन हो जाता है। यह अवस्था प्रयुद्ध भौर सुप्रबुद्ध इन दोनों अवस्थाओं के अम्तराछ की है ।. इसको समना अवस्था कहा जाता है । उन्मना द्वारा जब स्वरूप में भवस्थिति होती है तब इस स्थिति को ही उन्मना नाम से निर्देश किया जाता है ।. जब उन्मना द्वारा पूणत्व सिद्धि भविच लत होती है, तब योगी सिदू व सुप्रचुद्ध भवस्था प्राप्त करते हैं । इस अवस्था में स्थित होने पर मन की कोई क्रिया नहीं रहती ।. अर्थात मन का चाश्न्य इसको कदापि स्पण नहीं करता / योगी जब सुप्रवुद्ध अवस्था प्राप्त करते हैं तब उनकी इच्छा मात्र मे अमीष्ट विभूति का आधविर्भाव होता है । साधारणत इसको ही इच्छाशक्ति कहा जान्ग है । इससे यह समका जा सकता है कि योगो के इच्छा करने ही वह इच्छा दक्ति का रूप धारण नहीं करती । क्योंकि मन का अतिक्रम न कर पाने तक आत्मा का जागरण पूण नहीं होता, एवं भात्मा के पूरी तरह जाग न उटने तक, अर्थात मन से सम्पूर्ण मुक्त न होने पर उसकी इच्छा इच्छाशक्ति का रूप नहीं धारण करती । यह जो मिद्धि की बात कही गई; यह नाना प्रकार की है, एवं इसका आविमावि सी




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