सूर्यकांत या वेदांत ज्ञान दर्शन | Suryakant Ya Vedant Gyan Darshan

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Suryakant Ya Vedant Gyan Darshan by शिव नारायण शर्मा - Shiv Narayan Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सूर्यकान्त स्पौर उसका हिन्दी श्न्लुवाद । नए पपटमशटर्केटप्पटअाााणा हर प्राय: जिन भगवद्गक्लॉंने श्रीमद्वागवतकी कथा श्रवण की है, उन्होंने रडुना होगा, कि कश्यप सुनिकी दो पल्ियां थीं; एक कड्ठु और दूसरी विनता । इनमेंसे कट्ठुके उद्रसे सदस्त्र अएड उत्पन्न होकर उनसे सर्पों (नागों) की उत्पत्ति हुई और चिनताके दो अण्ड उत्पन्न हुए। जव उन अरुडॉको ५०० वर्ष हो गये ओर वह परिपक्त न हुए, तच एक दिन चिनताने, यह देखनेके लिये, एक अण्डेको फश्चा ही तोड़ दिया, कि उसमें कुछ है भी या नहीं । उससे अरुणकी उत्पत्ति हुई और चह्द कषीण अड्ट थे। वह अरुण ही प्रत्यक्षसे चन्द्रमा हैं । उन्होंने साताकों शाप दिया कि, अब लुम दूसरे अणएडको ५०० चर्प तक छेड़ना नहीं और तबतक तुमको कहट्ठकी दासी होकर रहना पढ़ेगा। जब दूसरा अणुड़ ५०० घर्ष पीछे परिपक्त दो जायगा तव उससे परम तेजस्वीरूप गरुड़ (सूर्य ) उत्पन्न होंगे और चहदी छुमको दासतासे छुड़ावेंगे । इत्यादि | तात्पर्य यद्द हैं, कि प्रथम चन्द्रकी . और पश्चात्‌ सूर्यकी उत्पसति हुई । इसी प्रकार सन, १४१० ई० में चन्द्रकान्त नामक घेदान्त घ्रत्यके प्रथम भागका युजरातीसे दिन्दी अनुवाद हुआ । दसाईकी इच्छा उसे चार भागोंमें समाप्त कर्नेकी थी । शुज्- रातीसें उसके तीन भाग प्रकाशित थी हो गये, परन्तु चौथा भाग अद्याचचि प्रकाशित न दो सकनेके कारण वह अरुण था सन्द्रमा की मांति अपूर्ण दी रदा ।. चन्द्रमामें १६ कला दोती है । उसकी जे




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