सूर्यकान्त या वेदान्त - ज्ञान - दर्शन | सूर्यकान्त Ya Vedant - Gyan - Darshan

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सूर्यकान्त Ya Vedant - Gyan - Darshan  by शिव नारायण शर्मा - Shiv Narayan Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ड ) उनमेंसे शुद्ध सतोगुणी शानी पुरुप तो केवल उसके खच्छ प्रकाशकों ही देेंगे। जैसे फोनो श्राफसे स्किाडपर विशेष रुपसे तयार की हुई सुई लगा देनेसे मनोहर राग रागिनियां सुन पड़ने लगती हैं और अन्य प्रकारकी सुई लगा देनेसे कुछ मी आचाज़ नदीं निकठती, बल्कि रिकार्ड खराब हो जाता है। इसी तरह फोनोंप्राफकी खुईको भी किसी अन्य वाजे ढोल, दल आदि पर लगाया जाये तो चाजेको बिगाड़ डालनेके सिवा और कोई लाभ नहीं शोता है । उसी प्रकार सतो शुणी पुरुप और सतोयुणी ग्रन्य मिलनेसे पाटकोंको वह आनन्द प्राप्त होता है, जो अकथनीय है। चैसा ही रजोगुणी पुरुषकों राजसिक ग्रन्थोसे भौर तमोगुणीको तामसी पुस्तकोके पढ़नेसे आनन्द प्राप्त होता है। इस त्रिगुणमयी खृष्िका वर्णन श्नौर कार्यादि भगवद्गीतां ९७ वे अध्याय चिस्तारपूवेक चर्णिटे-} । अभीतक दम ब्रह्मचिद्याकी एक सीढीपर भी नहीं, -“ घल्कि पहली सीढ़ीका दर्शन भी नहीं किया है पर श्रमचिद्या की तो २६ सीढ़ियां चढ़कर ठीक ऊपर चढ़ गये हैं, जहाँसे चारों ओर दृष्टि डालने पर विस्तारः पूवंक पक विचित्र जाल विछा हुआ नज़र आता है! दस शभ्रम-जालको खण्डन करनेके लिये सत-पुरुपोनि चचन रूपी शख्र छोड़े हैं, उन्हीं शख्रॉंका चित्र सूरवैकान्त मणिके ऊपर चिचित है । उस चित्रको चित्रकार पुराने डङ्कका जयपुरी है । या कसा इसकी परीक्षा चित्रकै जानने वाले सज्ञन पुरुष हो कर सकेंगे |




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