बिहारी नवनीत | Bihaarii Navaniit

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Bihaarii Navaniit by डॉ रवीन्द्र कुमार जैन - Dr. Ravindra Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उद्दीपन विभावों का, हाव-भाव एवं अनुभावों का ओर सौंदय॑ तथा यौन- चेष्टाओं का, छवियों का जैसा अनुभूतिमूलक, कल्पनाप्रवण, भाषापुष्ट एवं ललित तथा सामालिक वर्णन किया है वैसा उनसे पूर्व और पश्चात्‌ दुलेंभ ही रहा है। यह सतसई सतसई परम्परा का श्वंगार है । श्ंगार में संयोग और वियोग पक्षों की जितनी विविधता, विचित्रता और विवृत्ति अपनी पूणता में बिहारी सतसई में प्राप्त होती है, वह अन्यत्र अप्राप्य ही रही है। इस सतसई में कुल ७१९ दोहे हैं । इस रचना पर गाथा सप्तशती, आर्या सप्तशती तथा अमरुक' शतक का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है । यहां सतसई का वेशिष्ट्य प्रकट करने के लिए एक दो उदाहरण प्रस्तुत करना वांछनीय है । अनुप्रास के साथ भाषा की ध्वन्यात्मकता का निर्वाह प्रस्तुत दोहे में दृष्टव्य है-- रनित भूंग घंटावली, झरत दान मधु समीर । मंद मंद आवत चल्यो, कुंजर कुंज समीर ॥ छकि रसाल सौरभ सने, मधुर माधवी गंध । ठौर ठौर झूमत झँपत, भौर झौंर मधु गंध ॥ पतन का झूमते हुए चलना हाथी का दृश्य प्रस्तुत करता हैं। लर्गंता है हाथी ही अपना घंटा बजाता हुआ मा रहा है । दूसरे में - बसःत श्री से उत्मत्त भौरों का चित्र दृष्टव्य है ही । नेत्र सौन्दय का एक चित्न-- अतियारे दीरघ दुगनि किती न वसति समान । , वहू चितवनि औरे कछू जिहि बस होंत-सुजान ॥ इस दोहे में नेत्रों की तीक्ष्णता और दीघ॑ता' तो वर्णित हैं ही, किन्तु 'वहू चितवति औरे कछ' में जो व्यंजना है वही उसका प्राण है । बिहारी अलंकार योजना में तो' एक लोकोक्ति ही बन गये हैं और यमके के निर्वाह में तो वे और भी चरम पर हैं-- तो पर बारों उरबसी, सुनि राधिके सुजान । तू मोहन के उर बसी, हूं उरबसी समान ॥ बर जीते सर मन कें; ऐसे. देखे में हरिनी के नेनान तें, हरि नीके ये नैन॥। बिहारी सतसई की सर्वाधिक लोकप्रियता ने उनिक कवियों को प्रभांवित एवं प्रेरित किया । फलत: सतसई परम्परा का गुण और परिमाण की दृष्टि से पर्याप्त विकास हुआ । 'बिहारी सतसई' के पश्चात्‌ “वृन्द सतसई' की रचना ' सतसई साहित्य की परम्परा और उसमें बिहारी सतसई का स्थान / ६.




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