गांधी जी के सम्पर्क में | Gandhi Ji Ke Sampark Me

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Gandhi Ji Ke Sampark Me by चन्द्रशंकर शुक्ल - Chandrashankar Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१८. व गांधीजी के जप, लक लिप पिला थे निधि में से किये जाने वाले कार्यो के लिए ट्रस्टियों और कार्य- कारिणी समिति की मंत्रणाएँ समाप्त हो गई । कभी कभी तो गांधीजी कहते थे--मैं पैसों को दूबा सकता हूँ पर बिंगड़ने नहीं दे सकता; तुम इतनी जल्दी जल्दी मुझसे ये जनाएँ मंजूर न कराओ; तुम लोगों को आफिस खर्च और फर्नीचर के लिए पैसे सर्च कर देना है, चाहे काम में देर ही क्यों न हो!......पर कभी कभी युक्तिपूवक; कभी और किसी रीतिसे ओर कभी लाइले देवदास की सहायता लेकर, हम तो मंजूर करा ही लेते! अप्रेल १९४५ में एक रात को, बंबई के बिड़्ला हाउस में कुछ मिंत्रों की उपस्थिति में गांधीजी ने कहा था-- देखो, ठक्करबाप! ये पैसे तो गरीब ख़ियों के उपयोग के लिए हैं ही, पर यदि इसका कामकाज भी ब्ियों . के द्वारा ही हो तो ठीक ! खियों का दुःख ते ख्रियाँ ही समझ सकती हैं । हम तो सिर्फ मार्ग बता देते हैं, योजना बना देते हैं और उन्हें काम करना सिखा सकते हैं । अगर वे सीखने में भूल करे, काम बिगाड़ दे और पेसे अधिक खच करें तो भी कोई हर्ज नहीं है। जब तक हम बैठे हैं, जी रहे हैं तब तक थाने जाने के पहले यदि ब्रियों को उपयक्त बनाने में समर्थ हो सके तो एक बहुत बढ़ा काम हो जाएगा”... ...इतना ऊँचा आशय, ममता का त्याग और ख्रीजाति का. सम्मान ये सब एक साथ एकन्रित कैंसे हो गये ! यही विचार करता हुआ मैं घर जाकर सो गया । वे शब्द अभी तक मर कानों में गूंज रहे हैं ! ( ७ ) अब अंत एक ताजा अनुभव लिख कर प्रसंग समाप्त करता हूँ। १९४५ की जुलाई महीने की बात है । गांधीजी वेवल-परिषद्‌ के दर दि तें इए दिल्‍्ठी में तीन॑ घंटे के छिए ठहरे; इतने छोटे मय में भी वह बीमारों को न भूले । दिल्‍ली में हरिजिन निवास के का अस्पताल है । वहाँ कई वषा से, कंँग्रेस की सरस्वती देंवी बीमार थीं; गाँधीजी उन्हें




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