मेरे फूल | Mere Phool

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Mere Phool by वंशीधर विद्यालंकार - Vanshidhar Vidyalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द भी हो चुके । पूर्ण परिसिमाहि हो चुकी, काव्य का सदान पूरा दो चुका । अब आगे क्या है ? किन्तु कया काव्य की समाति हो चुकी £ कया सरस्वती ने कम- लासन पर बेठ कर अपनी वीणा बजानी छोड़ दी £ नये घ्रातःकारू के साथ नया आरम्स हो गया । नये दिन के उदय होते दही सूये भी नया हो गया | यह नवीनता युण युगान्तर से चली आती हैं। जिस दिन भारत के मघुर तपोवना में वाव्मीकि की समायण का पाठ: हुआ था, उस दिन यह मालूम होता था कि काव्य का यहीं से प्रारस्स और यहीं समाधि दो गई है । बल्लिमचन्द्र अट्टोपाध्याय ने अपने ग्रबन्धों मे लिखा है कि संस्कत के आदि कॉंनि चार्मीकि थे अपने काव्य की नायिका सीवा का जो ९ र६पयापण किया ए बहु आज तक भी उसी प्रकार अड्लित हु जेसा कि मदाकथि चादमीकिये चिजिय किया था । आज जो बड़े से बड़ा उपन्यास छिखा आता है जिस में प्रेमका आददे चित्र खींचना होता है उस के खेखक कया करते उसी घ्रातःस्मरणीया सीता के चरित्र का दा शोध उस में दिलाते हैं। किन्तु कया आदर्श प्रेसका चरिन्नलिऋण समा हो गया है ? चह चल रहा है। नये नये रूपों से नया नया बेदा धारण कर के वह साहित्य फिर फिर इृष्टिगोचर होवा हैं। बदते बढ़ते संस्कृत साहित्य में धामारव जैसे विशाज ग्रन्थ वी सष्टि छुई आर फिर अथवा छतवाण्द्वार वशेजरिपन्‌ एवेसरि।/ मे मणां बज झुरदाण सूुजूरश्यवाएशट में गहि। ॥' के रचयिवाने वाणी के तीथे रघुवंदा आदि की सष्टि की । कालि- दास, भवभूति, भारधि अपनी अपनी साहित्यिक रखनाओं में आनन्द की चरम परिणति पर पहुँच चुके । बह साहित्य किसना -उदात्त और मधुर है इस के साक्षी रखिकों के हृदय हैं जो इन को चारस्वार पढ़कर भी चूत नहीं होते हैं । संस्कृत साहित्य का माघुय इतना लोकोततर है कि उस की उपमा वह स्वयमेव है । किन्तु युग का प्रवाह नहीं रुका । घजभाषा आ पहुँची और आज कितने ही ,समालोचक तुलना कर के घजभाषा के यग को कितने:




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