मोक्ष मार्ग भाग -२ | Moksha Marg Bhag - 2

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Moksha Marg Bhag - 2 by रतनलाल डोशी - Ratanlal Doshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तीर्थकरत्व प्राप्ति के कारण द ) सम्यक्त्व का सिरतिचार पालन करने से । ) गुणज्ञ रत्नाधिकों का तथा ज्ञानादि का विनय करने से । ) उभयकाल भावपूर्वक षडावश्यक (प्रतिक्रमण) करते रहने से । ) मूलगुण और उत्तरगुणों का निर्दोष रीति से शुद्धतापूवंक पालन करने से । ) सदा संवेग भाव रखने से अर्थात्‌ शुभध्यान करते रहने से । + तपस्या करते रहने से । ) भक्तिपूवक सुपात्र दान देने से । ) आचार्यादि दस की वैयावृत्य करने से । ) सेवा तथा मिष्ट-भाषणादि के द्वारा गुर्वादि को प्रसन्न रखने से और स्वयं समाधिभाव में रहने से । ८) नवीन ज्ञान का अभ्यास करते रहने से । (१९) श्रुतज्ञान की भक्ति तथा वहुमान करने से । (२०) प्रवचन की प्रभावना करने से (धर्म का प्रचार करने से )। (ज्ञाताधमंकथांग ८) उपरोक्त बीस स्थानों की उत्क़ृष्टतापूर्वक आराधना करने से तीर्थकर नाम-कमं का वन्ध होता है । इस वन्ध के उदय वाले महापुरुष, तीर्थकर वन कर मोक्षमार्ग का प्रवर्तन करते हुए भव्यजीवों का कल्याण करते हैं । इन स्थानों की आराधना, साधु ही नहीं श्रमणोपासक भी कर सकते हैं, इतना ही नहीं चौथे गुणस्थानवर्ती अविरत-सम्यग्दृष्टि श्रावक भी वहुत-से वोलों की आराधना करके, तीर्थंकर नाम-कर्म का वन्ध कर लेते हैं । साधक की साधना का लक्ष्य तो केवल निजेरा का ही होना चाहिए । उसके मन में तीर्थकर नाम- कमें के वन्ध की भावना नहीं रहनी चाहिए । क्योंकि यह भी है तो वन्ध ही । साधक का लक्ष्य यदि वंघ का रहें, तो यह दृप्टि-विकार है । विकारी साधना का उत्तम फल कभी नहीं मिलता । मोक्ष के उद्देब्य से की जाती हुई साधना में शुभ भावों की तीब्रता से अपनेआप शुभकर्मों का वन्ध हो जानता है और थुभ- कर्मों में सर्वोत्तम प्रकृति तीर्थकर नाम-कर्म की है । तीर्थकर नाम-कर्म को निकाचित ( दुढ़तम ) करके तीर्थंकर वनने वाले महापुरुप या तो वेमानिक देव का भव छोड़ कर मनुष्य होते हैं, या फिर प्रथम नरक से लगा कर तीसरी नरक तक से आकर मनुप्य होने हैं (भगवती १२-९ तथा पन्ननणा २०)१वे वीरत्व प्रधान ऐसे उच्च शत्रिय-कुल्द में ही पुरुष रुप + से उत्तन +# भगवानु महादीर का प्राह्मण कुल में, गर्भ में आना और मस्लिनाथजी का स्पो-पर्दाय में होना लाइयसं रूप




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