विनती संग्रह | Vinati Sangrah

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Vinati Sangrah by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ जी, चाददी नित साता जी । सुखदाता जग- त्राता, तुम जाने नहीं जी प्रभु भागनि पाये जी, गुण श्रवण सुद्दाये जी । ताकि आयो सब सेवककी, विपदा हरो जी ॥ भववात वसेरा जी, फिरि दोय न मेरा जी । सुख पांवे जन , तेरा, स्वामी सो करो जी ॥ तुम शरनसहाई जी, तुम सजन भाई जी । तुम भाई तुम्दी बाप दया मुझ लीजिये जी ॥ 'भूघर' कर जोरे जी, ठाडो प्रभु औरे जी । निजदास निहार, निर- गय कीजिये 'जी ॥ ँ ्‌ ढाल परधघादी । अहों जगतगुरु एक; सुनियो अरज मारी 1 तुम प्रभु ! दीनदयाल, मैं दुखिया संसारी ॥ इस भववनके मांहि, काठ अनादि गमायो। श्रमत चहूंगतिमांहि, सुख नह दुख बहु पायों ॥ कम महारिषु जोर, एक न कान करे जी । मनमानो दुख देहिं; काहूसो न डरें जी .॥ कबहूं इतर “८. ने




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