शेष स्मृतियाँ | Shesh Smritiyan

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Shesh Smritiyan  by रघुवीर सिंह - Raghuveer Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ हूँ न अत: वह चाहता ह कि उस सत्ता की स्मृति ही किसी जन-समूह के बीच बनी रहे । बाद्य जगत्‌ में नहीं तो अन्तजगत्‌ के किसी खंड में ही वह उसे बनाए रखना चाहता है । इसे हम अमरत्व की अ्ाकांक्षा या श्रात्मा के नित्यत्व का इच्छात्मक आभास कह सकते हैं-- “भविष्य में आने वाले अपने अन्त के तथा उसके अन्तर अपने व्यक्तित्व के ही नहीं, अपने सवेस्क के; विनष्ट होने के विचार मात्र से ही मनुष्य का सारा दारीर सिहर उठता है ।-+ «०० « ० मनुष्य इस भौतिक संसार में अपनी सर्दतियाँ-- अमिट रुसतियाँ--छोड जाने को विकल हो उठते हैं ।” अपनी स्मृति बनाए रखने के लिए कुछ मनस्वी कला का सहारा लेते हैं और उसके आकर्षक सेंदय की प्रतिष्ठा करके विस्मृति के गडढे में भोंकने वाले काल के हाथों को बहुत दिनों तक--सहखों वर्ष तक--थामे रहते हैं-- “'यद्यपि समय के सामने किसी की भी नहीं चलती तथापि कई मारितिष्कों ने एसी खूबी से काम किया; उन्होंने ऐसी चालें चलीं कि समय के इस प्रलयंकारी भीषण प्रवाह को भी बाँधने में वे समर्थ हुए । उन्होंने काल को सौन्दय के अदस्य किन्तु अचूक पाश में बाँध डाला है, उसे अपनी कृतियों की अनोखी छटा दिखा कर छभाया है; यों उसे भुलावा देकर कई बार मनुष्य अपनी स्मृति के ही नहीं; किन्तु अपने भावों के स्मारकों को भी चिरस्थायी बना सका है ।” इस प्रकार ये स्मारक काल के प्रवाह को कुछ थाम कर मनुष्य की कई पीढ़ियों की श्रौँखों से असू बहवाते चले चलते हैं । मनुष्य अपने पीछे होने वाले मनुष्यों को श्रपने लिए रुलाना चाहता है । महाराजकुमार के सामने सम्राटों की अतीत जीवन-लीला के ध्वस्त रंगमंच हैं, सामान्य जनता की जीवन-लीला के नहीं । इन में जिस प्रकार माग्य के ऊँचे-से-ँचे उत्थान का. दृश्य निहित है वैसे ही.




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