जैन - धर्म | Jain - Dharm

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Jain - Dharm  by नाथूराम डोंगरीय जैन - Nathooram Dongariy Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जैन-धमं दद इस संबंध में किकतैव्य विमूढ़ मानव को भगवान्‌ ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यंत तीर्थकरों की परंपरा ने प्रथमत: आत्म- शुद्धिका मागे अपना कर परमात्म दशा को प्राप्त करते हुए अपनी दिव्य वाणी द्वारा दुनियाँ के दुखी प्राणियों को भी मार्ग दशन देकर उच्च स्वरों में निम्न प्रकार घोषणा की-- 'बधुओं, तुम जो अपने स्वयं के ज्ञानानदमयी स्वरूप को विस्मृत कर इस असार संसार के दिपय भोगों एवं धनादि संपदाओं को जीवन सवेस्व बनाये हुए हो और इसके लिए परस्पर भाई भाई से, पिता पुव से, एन जाति दूसरी जाति से तथा एक देश दूसरे देश से सघष एवं दानवों की भांति निबेलो पर अत्याचार कर सुखी बनने का स्वप्न देख रहे हो, वह तुम्हारा भ्रम है । विपय-वासनाओ की पूर्ति हेतु पाप, अन्याय, अत्याचार, अनीति और स्वार्थान्धितापूर्ण कुक़ृत्यों क करने से दुनियां मे कभी भी और किसी को भी शांति नहीं मिल सकती । इनकी ओर मनुष्य ज्यो-ज्यों पग बढ़ायेगा त्यों-त्यो अपने को भीषण अशांति और दुख सागर की भंवर के चक्कर में ही फंसा हुआ पायेगा । एक क्षण के लिए अपनी अंतशत्मा की आँखें खोलकर देखो, जो लोग दुनियाँ में स्वार्धान्ध होकर पाप और अत्याचार करते हुए अपनी आसुरी लालसाओ को तृप्त करने में जुटे हुए हें क्या उनका जीवन सुखी है ? कदापि नहीं । जो जितना स्वार्थान्ध होकर विषय वासनाओं की पुरति के लिए सककारी, दगाबाजी, बेईमानी आदि का सहारा लेकर दुष्प्रवृत्तियों में अग्रसर हो | रहा है वह उतना ही सतप्त, व्याकुल अशांत, पतित और




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