समयसार - वैभव | Samayasaar - Vaibhav

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Samayasaar - Vaibhav by नाथूराम डोंगरीय जैन - Nathooram Dongariy Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डे 4. आसव अधिकार । 5. संवर मधिकार । 6. निराधिकार । 7. अष अधिकार १ 8, भोका अधिकार । 9. सबं विशुद्धि अधिकार । ( 10. स्याटाद अधिकार ) इनका संक्षिप्त परिचय यहां विया जाता है । जीवाजोवाधिकार इसमे जोव के एकत्व की अर्यात्‌ स्वसमय' को कथा है, तथा बंध की कथा अर्थात्‌ पर समयः को भी कथा है । स्वसमय कथा आनन्ददापिनो है ओर परसमय कौ कथा विसंवादिनौ है । जीव तो लायक स्वभावौ स्वयं अनन्त चैतन्य का पुंज है । स्वरूप से त्रिकाल बुद्ध है । ज्ञानी के सम्यग्दर्दन ज्ञान चारित्र है, ऐसा कथन (भेद रूप कथन) व्यवहार नय से किया जाता है । परमार्थनय ( निश्जयनय ) से देखा जाय. तो आत्मा अखप्ड है, शान दर्शन चारित्र से अभिन्न है, उसमें त्रित्व-तसीनपना नहीं है । भेद कथन हो व्यवहार कथन है तथा अभेद स्वरूप वस्तु का अखंड एकाकार जैसा कि चह है-बैसा वर्णन करना निश्चय परक कथन है । वस्तु का स्वरूप यदि जानना है तो उसे भेद २ कर ही जाना जा सकेगा । इस अपेक्षा से व्यवहार नय उपयोगी है, उसके बिना लिदचयात्मक अखंड, एक घस्तु का स्वरूप नहं जाना जा सकता, इसीलिए व्यवहार नय भी प्रयोजमीय है, ऐसा कहा गया है । इन दोनों को भेदनय ओर अभेदनय-एसे दो नास देना हो ज़्यादा सुसंगत होमा । सेद प्रतिपादकता भी दूष्टि से जहाँ वस्तुगत भेद प्रतिपादित हो वहां बह नय वस्तु के निदचयात्मक स्वरूप का ही निर्देश करता है, अतएव उसे “स्वाश्रिती निश्चय:” इस निइचय के लक्षणानुसार निश्वयनम में हो शामिल कर सकते हैं । तथा “'पराशितो ब्यवहार:” इस व्यवहार के लक्षण के अनुसार परद्रव्य सापेक्ष आत्मा के दर्णन को हो ब्यवहार नय कगे । संसारी आत्मा को, उसकी उस अशुद्धावस्था मे भो “आत्मा” कहना, यह पराश्रित व्यवहारनय का कथन है । इस नय का भौ प्रयोजन पर के परत्व का प्रतिषादन ही है, अत: शुद्ध पदार्थ के बोध कराने के लिए इसका भौ प्रयोजन है । अश्ुद्धात्मा कै प्रतिपादकं व्यवहार नयं को मभूतायं (अशुद्धा्थ) का प्रतिथादक होने से अभूतां कहा है, ओर शुद्धात्मा (भूताथं ) के प्रतिपादकनयं निहचथनय को भूताथे कहा गया है । संसारो जीव की वर्तमान रागादि रूप अवस्था आत्मा का दुद्ध स्वरूप नहीं




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