जैन तर्क भाषा | Jain Tark Bhasha

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Jain Tark Bhasha by श्री यशोविजयजी - Shree Yashovijay ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ९ दे और दूसरा कारण यह है कि-जैन वाडमयका यह विभाग; जैन धर्स और समाजकी दृष्टिसे तो महत्त्वका है दी; लेकिन तढुपरान्त; यह समुचय भारतवर्षके स्वेसाधारण प्रजाकीय और राजकीय इतिहासकी दृष्टिसे भी उतना ही सहत्त्वका है। जैनधर्मीय साहित्यका यह ऐतिहासिक अड्झ जितना परिपुष्ट है उतना भारतके अन्य किसी धर्म या सस्प्रदायका नहीं । न न्नाह्मणघर्मीय सादित्यमें इतनी ऐतिहासिक सामय्री उपलब्ध होती है, न वौद्धघर्मीय साहित्यमें । इसलिये जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, तद्चुसार जैन अन्थभण्डारोंमें जहाँ तहाँ नाझोन्मुख दु्ासें पड़ी हुई यह ऐतिहासिक साधन-सम्पत्ति जो, यदि समुचित रूपसे संशोधित-सस्पादित होकर प्रकाशित हो जाय; तो इससे जैन घमके गोरवकी ख्याति तो होगी ही, साथ में भारतके प्राचीन स्वरूपका विशेष ज्ञान प्राप्त करने में भी उससे विशिष्ट सहायता प्राप्त होगी और तदूद्ारा जैन साहित्यकी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा विशेष प्रस्यापित होगी । इन्हीं दो कारणोंसे प्रेरित होकर हमने सबसे पहले इन इतिहास विषयक श्रन्थोंका प्रकाशन करना प्रारम्भ किया । इसके फलस्वरूप अद्यपय॑न्त, इस विषयके ६-७ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं और प्रायः १०-१२ तैयार हो रहे हैं । अब; प्रस्तुत ग्रन्थके प्रकाशनके साथ, सिंघी जैन अन्धमाढा, जैन प्रवचनका विशिष्ट आधारभूत जो दाशंनिक अज्ञ है तद्विपयक साहित्यके प्रकाशनका उपक्रम करती है और इसके द्वारा ध्येय-निर्दिष्ट कार्यप्रदेशके एक विशेष सहत्त्वके श्षेत्रमें पदा्पण करती है । जैन साहित्यका यह दाशंनिक विभाग भी, इतिहास-विभागके जितना ही सर्वोपयोगी और आकप्षेक महत्त्व रखता है। भारतवपपकी समुचय गंभीर तत्त्वगवेषणाका यह भी एक वहुत वड़ा और महत्त्वका विचारभंडार है। पूर्वकाठीन जैन श्रमणोंने आत्मगवेषणा और मोक्षसाधनाके निमित्त जो कठिनसे कठिनतर तपस्या की तथा अगम्यके ध्यानकी और आनन्त्यके ज्ञानकी सिद्धि प्राप्त करनेके छिये जो घोर तितिक्षा अनुभूत की-उसके फढ स्वरूप उन्हें भी कई ऐसे अमूल्य विचाररत्न प्राप्त हुए जो जगतके विशिष्ट कल्याणकारक सिद्ध हुए । अहिंसाका वह सहान्‌ विचार जो आज जगतूकी शांतिका एक सब श्रेष्ठ साधन समझा जाने ठगा है और जिसकी अप्रतिहत थाक्तिके सामने संसारकी सब संहारक शक्तियाँ छुण्ठित होती दिखाई देने ठगी हैं; जैन दुर्शन-शास्का मौलिक तत्त्वविचार है। इस अदिंसाकी जो प्रतिष्ठा जैन दृशंनशास्त्रोने स्थापित की है वह अन्यत्र अज्ञात है। मुक्तिका अनन्य साधन अर्हिसा है और उसकी सिद्धि करना,यह जैन दर्शनशास्त्रिॉंका चरम उद्देश है । इसलिये इस अहिंसाकें सिद्धान्तका आकलन यह तो जैन दार्शनिकोंका आदशे रहा ही; लेकिन साथसें, उन्होंने अन्यान्य दाशनिक सिद्धान्तों और तात्त्विक विचारोंके चिन्तनसमुद्रमें भी खूब गहरे गोते छगाये हैं ओर उसके अन्तस्तख तक पहुँच कर उसकी गंभीरता और विद्या- छताका नाप लेनेके लिये पूरा पुरुपार्थ किया है। :भारतीय दर्शनशास््रका ऐसा कोई विशिष्ट प्रदेश या कोना वाक़ी नहीं है जिसमें जैन विद्वानोंकी विचारधाराने ममेसेट्क प्रवेश न किया हो । मददावादी सिद्धसेन दिवाकरसे लेकर न्यायाचाये महदोपाध्याय यद्योविजयजी के समय तकके-अर्थात्‌ू भारतीय दरीनशाख्रकें समग्र इतिहासमें दृष्टि गोचर होनेवाली प्रारम्भिक संकठनाके उद्गम काठसे ढेकर उसके विकासके अन्तिम पर्व तकके सारे ही सजन-




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