जीवन चरित्र अमृता प्रीतम | Jeevan Charitara Amrita Pritam

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गोपाल झा - Gopal Jha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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2 कहलाती हैं ठीक उसी तरह जो पालती हैँ वह भी मां कहलाती है । स्वामी जी कुछ देर चुप रहे। तय तक वच्चे के मुख की और देखने का मौका शारदा को मिला । नि संतान मात हृदय में एक आलोडन हुआ । धीरे-धीरे उसने अपने दोनों हाय महाराज की भर वढ़ा दिए । शिशु को उसकी गोद में युलाकर स्वामी जी ने उसकी आंखों की भर देखा--वे अश्रू-पूर्ण थी । पूरे चेहरे पर मातृ-स्नेह की रेखा फैली हुई थी । उन्होंने धीरे-धीरे कहना शुरू किया शारदा मैंने यही सोचा था । तुम्हारे लिए ही भगवान ने इसे मेरे हाथ भेजा है । मन लगाकर मेरी बात सुनो 1 इसे कभी यह नहीं बताया जाएगा कि यह परित्यक्ता और परिचयहीन है । केवल यही नहीं । हम दोनो के सिवा इस सत्य को कोई नहीं जान पाएगा । वया तुम ऐसी व्यवस्था कर सकती हो जिससे समाज की कोई हानि न होगी कानूनी असुविधा न होगी फिर भी मह निथ्पाप शिशु स्वाभाविक रूप से स्वस्थ जीवन-यापन कर पाएगा ? शारदा सोचने लगी । स्वामीजी ने फ़िर कही तुम्हारा मातृ-्हृदय ही तुम्हें बताएगा कि ऐसी अवस्था में दुनिया में कया करने से यह सम्भव हो सकता है ता इसे साथ लेकर मैं रेल से काफी टूर एक छोटी-सी जगह में चली जाऊगी जहां मुकके कोई पहचानता नही है । उसके दो दिन वाद वापस आकर सबो से कहूंगी कि मेरी दूर की एक विधवा सम्बन्धी काफी वीमार थी । तार देकर मुझे बुलाया था । इसीलिए मैं अचानक चली गई थी । मेरे जाने के बाद वह यह लड़की छोड़कर चल बसी । अगर किसी दिन इस बच्ची की मा पूरा सबूत देकर इसे ले जाना चाहेगी ती वह रास्ता भी खुला रहेगा । तब तक मे री पदवी ही इसकी पदवी होगी और मैं आजीवन इस बात के लिए आपका छृतन्न रहूंगी कि आपकी कृपा से यह नि.सतानी आज से संतानवती हुई 1 भगवान तुम्हारा मगल करें । मैं हल्का अनुभव कर रहा देर के बाद महाराज एक कुर्सी पर बैठे 1 दी दी सुम्हारे पास रुपया है ? हक अमृूना / 15




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