धर्मामृत | Dharmamart

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Dharmamart  by पं. कैलाशचंद्र शास्त्री - Pt. Kailashchandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना ३५ है । इवं, साधु बस्त्रके सिवाय भी कम्बल, पात्र, पायपुंछन आदि अनेक उपकरण रखते हैं। दि. साहित्यमें इन सबकी कोई चर्चा नही हैं क्योंकि दि, साधुके लिए मे सब अनावश्यक हैं । वे, साधु श्रावकोंसे पीठफछक, तख्ता, चटाई आदि उपयोगके लिए लेते हैं । उपयोग होमे पर लौटा देते हूँ । उनमें मी शयमके लिए घास, पत्थर या लकड़ीका तख्ता श्रेष्ठ कहा है। साधुको घास पर भअच्छो तरह जीव जन्तु देखकर हो सावधानीसे इस तरह लेटना चाहिए कि किसी दूसरेसे अंग स्पर्श न हो 1 आवदयकता होने पर साधु सुई, उस्तरा, नखच्छेदनी तथा कान सलाईका भी उपयोग करता है किन्तु छाता जूता वर्जित है । भिक्षा और भोजन साधुकों सुर्योदयसे तीन घड़ीके पश्चात्‌ और सुर्गास्तसे तीन घड़ी पहले भोजन कर लेना चाहिए । छियालीम दोप रहित और नवकोटिसे विथुद्ध आहार हो ग्राह्म होता है । कहा है-- णवकोडिपरिसुद्ध अतणं बादालदोसपरिहीणं । संजोयणाय हीण॑ परमाणसहियं विहिसुदिण्ण ॥॥ --मूखाचार ६1६३ ॥ वे, साथु भी भिक्षाके उचित समय पर भिक्षाके लिए जात। है । वह साथमे किसी ध्रावक वगैरहकों नहीं रखता गोर चार हाथ आगे देखकर सावबानता पूर्वक जाता है । यदि मूसलाधार वृष्टि होती हो, गहरा कोहरा छाया हो, जोरकी भाँधी हो, हवामें जन्तुओका बाहुल्य हो तो. साधुको भिक्षाके लिए जानेका निषेघ है। उसे ऐसे समयम भी नहीं जाना चाहिए जब भोजन तैयार न हो या भोजनका समय बीत चुका हो । उसे ऐसे मार्गसे जाना चाहिए जिसपर कीचड, जीवजन्तु, जंगलो जानवर, गढ़े, नाला, पुछू, गोबर वगरह न हो । बेश्यावाट, अधिकारियोके निवास, तथा राजप्रासाद वर्जित है। उसे अपना भिक्षा भ्रमण प्रारम्भ करनेसे पहले अपने सम्बन्धियोके घर नहीं जाना चाहिए । इससे स्पेशल भोजतकी व्यवस्था हो सकती है । यदि घरका द्वार बन्द हो तो उसे न तो खोलना चाहिए और न उसमे से झाकना चाहिए । सुत्रकृतांगसुघ्र में यद्यपि भोजनके छियालीस दोषोंका निर्देश है किन्तु किसी भी अंग या मूल सूत्रमें उनका ब्योरेवार एकत्र वर्णन नहीं मिलता जेसा मूलाचारमें मिलता हैं । भिक्षा लेकर लौटने पर उसे गुरुको दिखाना चाहिए भर पूछना चाहिए कि किसीको भोजनकी आवश्यकता है क्या । हो तो उसे देकर शेष स्वयं खा लेना चाहिए । यदि साधुको भूख लगी हो तो एकान्त स्थानमें किसी दीवारकी ओटमे स्थानके स्वामोसे आज्ञा लेकर भोजन कर सकता है। यदि एक बार घूमने पर पर्याप्त भोजन न मिले तो दूसरा चबकर लगा सकता है । साधुके लिए भोजनका परिमाण बत्तीस ग्रास कहा हैं। और ग्रासका परिमाण मुर्गीके अण्डेक्ने बराबर बहा है। साधुको अपने उदरका आधा भाग अन्नसे, चतुर्थ भाग जलसे ओर चतुर्थ भाग बायुसे भरना चाहिए । अर्थात्‌ भूखसे आधा खाना चाहिए । दवे, साधु गृहस्थके पात्रका उपयोग नहीं कर सकता । उसे अपने भिक्षा पात्रमें ही भोजन लेना चाहिए । जब भोजन करे तो भोजनकों स्वादिष्ट बनानेके लिए विविध व्यंजनोकों मिलानेका प्रयत्न न करे । और न केवल स्वादिष्ट भोजन ही ग्रहण करे । उसे किसी विशेष भोजनका इच्छुक भी नहीं होना चाहिए । इस तरह पाणि भोजन भर पात्र भोजनके सिवाय दोनों परम्प राओंमें भोजनके अन्य नियमोंमें विशेष हन्तर नहीं है। नवकोटि परिशुद्ध, दस दोष रहित और उद्गम उत्पादन एपणा परिशुद्ध भोजन हो जन साधुके लिए प्राह्म कहा है ।




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