जैन न्याय का विकास | Jain Nyaya Ka Vikas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
194
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
मुनि नथमल जी का जन्म राजस्थान के झुंझुनूं जिले के टमकोर ग्राम में 1920 में हुआ उन्होने 1930 में अपनी 10वर्ष की अल्प आयु में उस समय के तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालुराम जी के कर कमलो से जैन भागवत दिक्षा ग्रहण की,उन्होने अणुव्रत,प्रेक्षाध्यान,जिवन विज्ञान आदि विषयों पर साहित्य का सर्जन किया।तेरापंथ घर्म संघ के नवमाचार्य आचार्य तुलसी के अंतरग सहयोगी के रुप में रहे एंव 1995 में उन्होने दशमाचार्य के रुप में सेवाएं दी,वे प्राकृत,संस्कृत आदि भाषाओं के पंडित के रुप में व उच्च कोटी के दार्शनिक के रुप में ख्याति अर्जित की।उनका स्वर्गवास 9 मई 2010 को राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ।
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( 3.
ईसा की सोलहवी थती के सुन्नसिद्ध दार्शनिक करासिस वेकल (पिवा0015
88000) ने इन्द्रिाचुमन के सिद्धान्त को सर्नोपरि भहरन दिया सौर अतीन्द्रिय
प्रमाथ को श्रसत्य एवं काल्पनिक बतलावा । उनके सताघुसार जो इच्टियानुभूत नही
है वह थयथायें नहीं है, जो इच्दिय-भत्यक्ष नहीं है नह सरय नहीं है। इतष्द्रियनादी
दरर्शनिकों ने थी प्रस। को स्वीकृति दी है । वेकन के अनुसार केवल इच्द्रियालुसन
पर्याप्त नही है, झागसनात्मक तक भी अनश्यक है । सवंप्रथम हम इच्द्रियापुसन के
कार घटनाओं श्र तथ्यों का सकलन करें, फिर उनका विश्लेषरष करें । निश्लेषरणु
में भराप्त छुलनो आर विरीव के आधार पर साभाग्थ नियम (व्याप्ति) या हेठ की
खोज कारें | इस प्रवार वेंकन ने भ्रत्यकषवाद श्र प्रस।वाद का समन्वय किया हैं ।
इच्द्रिबन्सान, सनसिकननाव और सी ये तीनो बरी र1घिष्ठान को सीम।
में आते हैं । इष्द्रिय-नान का उपकरण सस्तिध्क तथा शरीरभत इन्द्रिय झधिध्ठान
है। मन आर शरण का उपकरण मस्तिष्क है। भारतीय चिन्तकों ने इस शरीर-
निभितक ज्ञान से अागे भी प्रस्थान किया । उनके जस्यान का सार बह हैं. इस्द्रिय,
मंच श्रौर श्नो से परे भी जान है । बह प्रस्थान न बौद्धिक था श्रौर न ताकिक ।
उसका श्रचुभन यीथिक ऑश्यास के कार भ्ाप्त था । उन्होने निविकल्प सावन का
ग्रभ्यास किया, जह इच्द्रिव समा्त, सच समाप्त, बुद्धि श्र तक समाप्त, विकल्प
मान समाप्त हो जाते हैं । उस निविकल्प भूमिका में उन्हे साक्षात् अपुभन हुआ,
तन उच्दीने अतीर्द्रिव-सन को रवीकृति दी । बह जान इच्द्रियातीत, भनोतीत और
श्रमातीत है। उसमे थरीर का कोई उपकरण सहयोग नही करता या शरीर के
किसी भी उपकरण की सहायता अपेक्षित नहीं होती । इस अतीस्द्रिय-सान की
स्वीकृति ने श्राभम भ्रमारण की स्वीकृति दी । आ्रागम का अथ है श्रतीर्थ्रियसान की
स्नीकति । यदि अ्ती च्द्रिवसान की स्वीकृति नहीं होती तो आस का पामाण्य श्रम
की श्दखल। में नहीं जुड़ता ।
श्ापाय कु्दकुन्द के अगुस।र जिसे इच्द्रियातीत-जान श्राप्त हॉत। है नह
सभ्पूण सत्य को जान लेता है, देख छेता है ।* भारतीय दर्शनों ने अतीस्द्रियसाव को
किसी-नकिसी रूप में मास्थता दी है। जन और बौद्ध दाशंनिको ने पुरुष में
भरती च्प्रिवसान को रवीकार किया है । ई९व रव।दी दार्शनिको ने ईश्वर को भरती नि्द्रिय-
जानी माना हैं । साथ्य, नैयायिक, वेशेपिक और सीसासक ये सभी दर्शन 'श्रागम'
को श्रनार मानते हैं । जैन दर्शन के अपुसार परोक्ष श्रनाण के पाप शकार हूँ । उनमे
4 न्रवचंपस।र, 29 ,
जार दि पस्तसदि खिबद, सक्खातीदों जगससेस ।
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