अथर्ववेदभाष्यम् सप्तदशं काण्डम् | Atharvvedbhashyam Bhag 7

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Atharvvedbhashyam Bhag 7 by क्षेमकरणदास त्रिवेदिना - Kshemkarandas Trivedina

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about क्षेमकरणदास त्रिवेदी - Kshemakarandas Trivedi

Add Infomation AboutKshemakarandas Trivedi

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
सू० ९ [ ५९२३ ].... सप्तदशं कायडसू ॥ ९७ ॥। ( दे, २७ तेरे हो [ मन्त्र ६10 १३ # सावाय--परमात्या ने पृथिवी झादि पाँच तसवोँ में झनस्त उपकार शक्ति दी है, सचुष्य उन तत्वों के विज्ञान से उपकार लेकर सुख प्राप्त करे ॥ १३॥ त्वासिन्ट्र ब्रह्मणा वधयन्त: सत्च नि पदक षयो नाधसाना- स्तवंद विष्णों बहा घोयाशि । त्वं न पूर्णोहि पशशिघधि,- श्वरूप: सधघायाँ सा थेहि परमे व्यासन्‌ ॥ ९४ ॥ त्वासू । इन्द्र । ब्रह्म॑णा । घधयन्त!: । सृत्चसू । नि । से.दः ऋषय: । नाधसाना: । तव । इतु । विष्णो इति । बह था वोयाखि ॥ त्वसू । न । पणोक्षि, । पश-सिः । विश्व-रूप: स-घायांसू । सा । धेहि. । परुसे । घि-सासन ॥ ९१४ ॥ माषाथ--(इन्द ) हे इन्द्र ! [ परम ऐश्व्य वाले ज्गदीश्वर ] ( घ्रह्म- णा ) बढ़े हुये बेद्ज्ञान से ( त्वांमू ) तुझे ( वर्घयस्तः ) बढ़ाते हुए, (नाघमामाः ) [ मोच सुख ] मांगते हुये ( ऋषयः ) ऋषि [ चेद्ज्ञाता ] लोग ( सत्नम्‌ ) बैठक [चायज्ञ] में ( निषेदुः ) बेठे हैं, (विष्णो) हे विष्खु ! [ सर्व व्यापक परमेश्वर 1] (तब इत्‌ ) तेरे ही [ मल्त्र द] ॥ १४ ॥ भावाथ--उजैसे ऋषि लोग चेद ज्ञान द्वारा जगदीश्वर की मदिमा के घन से उन्नति करके संसार को सुख पहुंचाते हें, वैसे ही सब मजुष्य पररुपर उपकार कर ॥ १४ ॥ व्व॑ ततं त्व॑पय ष्युत्स सहस्त्रधारं विदय स्वविंदूं. तवदू ब्याप्ततचनसि ( तया ) (नः ) झअझस्मस्यमू ( तस्वा ) उपकारशक्त्या ( शम ) सुखमू ( यच्छ ) देदि । शन्यत्‌ पूबंवतू ॥ १४--( त्वामू ) परमार्मानम (इन्द्र ) ( ब्रह्मणा ) प्रवूद्धेस वेद्शानेन * (चथघंयन्तः ) उन्नयन्तः । स्तुवन्त इत्यथं: (खत्म) पटल विशरणणत्यव सादनेषु- त्रल्ू । स्थानम्‌ । यशम्‌ ( निषेट्टः ) निषणणा नियमेन स्थिता बभूवुः ( प्षयः ) चेद्बेत्तार+ ( नाघमाना। ) मोक्ष थाच माना । झन्यत्‌ पू्वंचत्‌ ॥ शो




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now