जैन - सिद्धान्त - भास्कर भाग - 31 | Jain - Siddhant - Bhaskar Bhag - 31

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Jain - Siddhant - Bhaskar Bhag - 31   by अगरचन्द्र नाहटा - Agarchandra Nahta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हर झ्ंजना सुम्दरी र।स का रचनाकाल स्नह्ला एांद्य . न्तप्ता ख्तिघ्या छप्न द्टिक ) झंजना सुन्दरी रास स० १६६० रायपुर ऋआदि- महोपाध्याय श्री विवेक हषे॑ गणि युसुभ्यो नमः । भादि जिनवर श्रादि जिनवर प्रथम प्रगामेषि समकं सरसती भगवती हंस गमिंग्गी रिपु सेन दमती सरस वचन रस वर्सती बसो मुझ मुखकमल रमती तू प्रसन्न थई पुरवे मुझ मन केरी ध्रास सती शिरोमणि भ्रंजना, करेसु तेहनो रास 1 ह॥। झत-- राग घन्यासों बिस्तरिया गुण झनोपम जग मोहि जेहना रे, जग गुरु तपगच्छ नाहरे । हीर विजय सूरि राजिमुरे, जिंग प्रतिबोध्युद्धि अकबर साहि रे । वि० ।€। करी रे श्रमारि छम्मास नी रे, जिणि मेहलाव्या कर मसेत्र,ज गिरनारि रे । पूज्य पनोता पाटोघर जहनारे, श्री विजय सेन गराधार रे । वि* 1१०। जिशि शाहि कब्र नी समां मांहि भट्ट सुरे, कीधो कीघों वाद उमंग रे । भिथ्यामत रखडी करी रे जिण राख्यु' २ जिन शासनि रंग रे । वि० 1१1 गाय वृषभ महिषादिक जीवनी रे कीघा कीधा नित्य झमारि रे । बंदिन भालइ को गुरु वयण थी रे, द्रव्य भ्रपुत्र नु दारि रे । वि० है रो तासु पटोधर गुण मणि सागरु रे तास ाचायं विजय देव सर रे तस गच्छ मंडण पंडित शिरोमगणी रे, दरघानंद पंडित गुर भूरि रे । वि० 1१ ३े। तस पदवी उदयाच न सिग्गगार बारे, ऊग्या ऊग्या बधन जोड़िरे ॥ विवेकटट्ष पंडित दिन करु रे, परमारणुद पं छित रुग्ा कोडिरे । बि० । है ४। ते तप गच्छपति नो भ्रादेश लट्ी करी रे, कीघ कीध प्रथम विहार रे । काछु मंडल प्रतिदोधिउ रे तिहां थया थया सुर सानिधकार रे । वि० 1१४) जिगशराजा श्रो भारमल जो प्रतिबोधिउ रे तिरा कीधी कीधी जीव श्रमारि है ! अष्टावघान देखाड़िग्ना रे तिशि रीभ्या २ राय धपार रे । [ तिण जाएया जाण्या पंडित सिरदार रे ] वि० 11१६॥। राय शो भारमज्ञज्ञी नी परषदारे, जिस कीघू कीधु कुर्मात सुवाद रे + भाद्रवि पहुसणा थापिधारे, तिरित पास्थु पाम्यु जगत्रि यगवाद है । तिथि सोडा सोड़या कुमति ना नाद दे । वि० ॥ ७11




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