मग्न मन्दिर | Magn Mandir
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
27 MB
कुल पष्ठ :
298
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्६ भरन मन्दिर
क्ररता श्रौर बबंरता को, यम-यन्त्रणाझ्ो को भूलने की इच्दया करने लगे । आखिर
जब हम स्वतन्त्र हो ही रहे हे तो पुरानी कटुताश्रो को दिल मे समाए रखने मे क्या
बुद्धिमानी है * भूलो श्ौर माफ करो तथा अपने इतिहास का नया पन्ना खोलो,
यही श्रेयस्कर है । श्रौर इस वातावरण मे भारत भ्ौर ब्रिटेन की सच्ची मंत्री का
नया अध्याय प्रारम्भ हुभ्रा । दुनिया ने दातो तले उगली दबाकर इस श्रदूभूत क्रान्ति
का अवलोकन किया । सत्ता के हस्तातरण की क्रिया भ्रत्यन्त तेजी के साथ संपन्न कर
दी गई ।
'.. स्वातन्त्रय सूयें को एक ही ग्रहण लगा, हिन्दू-मस्लिम सघप का । अन्त तक
दोनो में एकता प्रस्थापित नहीं हो सकी । घृणा भझ्ौर विद्वेष का भूत दिल श्रोर
दिमाग पर सवार था । उसके सामने भीतर बेठने वाली मनुप्यता दव गई, उसकी
आ्रावाज क्षीण हो गई । सभी दलों ने इस तथ्य को स्वीकार किया कि भारत को
खण्डित करना होगा, श्रखण्ड भारत नहीं बन सकता । एक राष्ट्र हो या दो राष्ट,
अग्रेज रुकने के लिए तैयार नहीं थे, इसलिए भारत का विभाजन कर वे दोनों के
हाथ मे सावंभौम सत्ता सौपकर चलते बने ।
भारत खण्डित तो हुआ, विभाजन की विभीपिका से अभिवप्त भी हुआ, पर
धन्य हो उठा । इतना बडा भूमि-खण्ड कभी एक भकण्डे के नीचे इस देख के पुरातन
इतिहास मे भी समाविष्ट नही हुझा था । भारतीय जनता श्रानन्द विभोर हो उठी ।
खुशी के मारे नाच' उठी, पागल हो गई।
उसी वातावरण मे आई झगस्त सन् १९४७ की १४-१४ की मध्यराधि, जप
गवर्नेमेट हाउस के समारोह मे सत्ता-हुस्तास्तरण का कार्य सम्पन्न हुआ । इसके
पहले भी पुरणचन्द्र जोथी' का मरन्विमण्डल य्धिकाररूढ था, पर बह स्वतन्त्र भारत
के प्रदेश का मन्त्रिमण्डल नहीं था । इसलिए जातते के लिए उस मस्यिमष्यल ने
त्यागपत्र दिया, झौर फिर दुबारा स्वतन्त्र भारत के अ्म्तर्गत उस प्रदेश के प्ररम
सस्तिमण्डल के रूप में शपथ ग्रहण की । पूरणचन्द्र श्रपने इस पूर्व गौरव को
देखकर गदुगद हो गए । सारी जनता उन्हें सर-पझ्राखों लेकर धूमा करती 1
स्वतन्त्रता की कल्पना उनके व्यक्तित्व में साकार हो उठी । भारत की जनता
स्वभाव से वीर-पूजक है, व्यक्ति-पुजक है। किसी न किसी व्यक्ति को श्रपने स्वप्नों
आर श्रादर्दों का प्रतीक बनाकर वह उसकी झ्रम्यर्थना करती है । इस शद्धा-भावना
मे फिर वह उसके दुर्गणो या कमज़ोरियो का विस्मरण कर देती है । प्रेम की तरह
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