दशवैकालिक सूत्र | Dashavaikalik Sutra

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Dashavaikalik Sutra by ब्रजलाल जी महाराज - Brajalal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दसवें श्रध्ययन का नाम सभिक्षु है । इस श्रध्ययन की इक्कीस गाथाओ में भिक्षु के स्वरूप का निरूपण है। भिका से जो भपना जीवनयापन करता हो बहु भिक्षु है । सच्चा भौर अच्छा श्रमण भी “शिक्षुक' सजा से ही झभिहित किया जाता है भौर भिखारी भी । पर दोनो की भिक्षा मे बहुत बड़ा अन्तर है, दोवो के लिए शब्द एक होने पर भी उद्देश्य में महान भन्तर है । भिखारी में सप्रहवत्ति होती है जबकि श्रमण दुसरे दिन के लिए भी खाद्यनसामग्री का संग्रह करके नहीं रखता । भिखारी दीनवत्ति से मागता है पर श्रमण भदीनभाव से भिक्षा ग्रहण करता है। भिखारी देने वाले की प्रशसा करता है पर श्रमण न देने बाले की प्रशसा करता है भौर न झपनी जाति, कुल, विद्वसा भ्रादि बताकर भिक्षा मागता है । भिखारी को भिक्षा न मिलने पर वह गाली झौर शाप भी देता है किन्तु श्रमण न किसी को शाप देता है श्रौर न गाली ही । श्रमण श्रपने नियम के अनुकूल होने पर तथा निर्दोष होने पर ही वस्तु को ग्रहण करता है । इस प्रकार भिखारी शभ्ौर श्रमण भिक्षु मे बडा भन्तर है । इसलिए झध्ययन का नाम सभिक्षु या सद्भिक्षु दिया है । पूर्ववर्ती नौ श्रध्ययनो मे जो श्रमणों की झाचार- सहिता बतलाई गई है, उसके झनुसार जो श्रमण श्रपनी मर्यादानुसार श्रहिसक जीवन जीने के लिए भिक्षा करता है--वह भिक्षु है । इस झध्ययन की प्रत्येक गाथा के भ्रन्त मे सचिक्खु शब्द का प्रयोग हुभा है । भिक्षुचर्या की दृष्टि से इस श्रध्ययन में बिपुल सामग्री प्रयुक्त हुई है । भिक्षु वह है जो इन्द्रियविजेता है, भ्राक्नोश-क्चनो को, प्रहारो को, तजनात्रों को शान्त भाव से सहन करता है, जो पुन पुन व्युत्सगं करता है, जो पृथ्वी के समान सर्वसह है, निदान 'रहित है, जो हाथ, पैर, वाणी, इन्द्िय से सयत है, श्रध्यात्म में रत है, जो जाति, रूप, लाभ व श्रुत श्रादि का मद नहीं करता, श्रपनी श्रात्मा को शाश्वत हित मे सुस्थित करता है । इस प्रकार प्रस्तुत झ्रध्ययन मे भ्रमण के उत्कृष्ट त्याग की भलक दिखाई देती है । दस श्रध्ययनों के पश्चात्‌ प्रस्तुत श्रागम में दो चूलिकाए भी है । प्रथम चूलिका का नाम रतिवाक्या है । इसमे श्रठारह गाथाए हैं तथा एक सूत्र है । इसमे सयम मे स्थिर होने पर पुन स्थिरीकरण का उपदेश दिया गया है। श्रसयम की प्रवत्तियों मे सहज श्राकषंण होता है, वह श्राकषंण सयम मे नही होता । जिनमे मोह की प्रबलता होती है, उन्हे इन्द्रियविषयों मे सुखानुभूति होती है । उन्हे दिषयो के निरोध मे प्ानन्द नहीं मिलता । जिन के शरीर मे खजली के कीटाणु होते हैं, उन्हे खुजलाने मे सुख का श्रनुभव होता है किन्तु जो स्वस्थ हैं उन्हे खुजलाने मे भ्रानन्द नहीं भ्राता श्रौर न उनके मन में खजलाने के प्रति श्राकषंण ही होता है । जब मोह के परमाणु बहुत ही सक्रिय होते है तब भोग मे सुख की ध्नुभ्ूति होती है पर जो साधक मोह से उपरत होते है उन्हे भोग में सुख की अनुभूति नहीं होती। वह भोग को रोग मानता है । कई बार भोग का रोग दब जाता है किन्तु परिस्थितिवश पुन उभर श्राता है । उस समय कुशल चिकित्सक उस रोग का उपचार कर ठीक करता है, जिससे वह रोगी स्वस्थ हो जाता है। जो साधक मोह के उभर श्राने पर साधना से लडखडाने लगता है, उस साधर्क को पुन सयम-साधना मे स्थिर करने का मार्ग इस चूलिका से प्रतिपादित है । इस चूलिका के वाक्यों से साधक में सयम के प्रति रति उत्पन्न होती है, इसीलिए इस चूलिका का नाम रतिवाकया है । इसमे जो उपदेश प्रदान किया गया है, बहू बहुत ही प्रभावशाली श्रौर भ्रनूठा है । दूसरी चूलिका विविक्तचर्या है । इस चूलिका मे सोलह गाथाए हैं । इसमे श्रमण की चर्या के गुण श्रौर नियमों का निरूपण है, इसलिए इसका नाम विविक्तचर्या रखा गया है । ससारी जीव श्रनु्नोतगामी होते हैं । बे इन्द्रिय भौर मन के विषय-सेवन मे रत रहते है, पर साधक प्रतिस्रोतगामी होता है । बह इन्द्रियो की लोलुपता के प्रवाह में प्रवाहित नही होता । वह जो भी साधना के नियम-उपनियम हैं, उनका सम्यक प्रकार से पालत करता है। पांच महाब्रत मुलगुण है। नवकारसी, पौरसी श्रादि प्रत्याड्यान उत्तरगुण हैं । स्वाध्याय, कायोत्सम ( १४




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