संत - सुधा - सार | Sant Shudha Sar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
144 MB
कुल पष्ठ :
970
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जि नर, मजकनरमस
संस सॉफरिसिस न सलिस्पािििययसवयपनसदॉसनियकिसानियेम:
१६
नहीं होगा, लेकिन सगुण-साकार का प्रवेश हो जायगा । कुरान का कुल मिला-
कर भाव मैं यही समा! हूँ कि मोहम्मद के सामने विकृत मूर्तिपूजा खड़ी है,
जिसके साथ श्रनेक भ्रष्टाचार जुड़ गये हैं ; उस सबका वे निषेघ करना चाहते
हैं । आखिर, ईश्वर का शब्द वे सुनते थे, “बह्दी”” उन्हें प्राप्त होती थी; उससे
वे भावित होते थे, उसका उनके शरीर पर श्रसर होता था; कुछ रूद; कुछ प्रभा,
कुछ भ्राभास; जो भी कहो, उनके झंतर-मानस में प्रगट होती थी । यह सब देहधघारी
मनुष्य कैसे टालेगा ? सारांश, जो शब्दातीत वस्तु है उसको शब्द में प्रगट करने के
प्रयत्न में ही दोष आरा जाता है । विष्णुसदसखनाम में तो भगवान् के दो नाम ही यों
दिये हैं, “शब्दातिगः शब्द्सह: ” शब्द से परे; किन्तु शब्द को सहन करने-
ध इसलिए, श्रचिंत्य विषय में सब श्राग्रह छोड़कर नम्र हो जाना यही
सर्वोत्तम लक्षण है ।
(उ) संतों की . जीवन-योजना में श्राखिरी बात है सत्संग की चाह ।
सामान्य व्यावद्दारिक विद्या की प्राप्ति के लिए, भी जब उस विद्या के जानकार का
सहारा लेना पड़ता है, तब श्राथ्यात्मिक साधन में प्रवेश की इच्छा रखनेवाले
को अनुभवी संतपुरुषों की संगति टॉढनी ही पड़ेगी । यह बात सहन समझ में
आती है। इसीलिए शंकराचायं ने मनुष्यस्व श्रौर मुमुन्नु्व के बाद महा पुरुष-
संश्रय को तीसरा महद्भाग्य माना है । आत्मा स्वयं-सिद्ध श्रौर श्रपना निजरूप
. ही होने के कारण हम ऐसा श्रात्रहो विचार तो नहीं रख सकते कि सूयोंदय के
. पहले उधोदय के समान झ्रात्मद्शन के पहले महदापुरुष-संश्रय या स्थूल सत्संगति
आवश्यक है । श्र दम यह भी नहीं कह सकते कि सत्संग के लोभ में, ऐसे किसी
रन 2 वेषघारी को सत्पुरुष या. सद्गुरू के स्थान पर तिठादे | लेकिन यह जरूर
.. मानना पड़ेगा कि जहाँ सद्विचार के श्रवण-मनन का मौका मिलेगा वहाँ
पहुँचने की या वैसी संगति टॉंढ़ने की झमिलाषा साधक में होनी चाहिए; । मैं
तो कहूँगा कि सत्संगति की अभिलाषा सत्संगति से भी बढ़कर है । या; झधिक
समीचीन भाषा में यों कह सकते हैं कि सत्संगति की झभिलाषा ही सच्ची सर्त्सं-
_ गति है ।
यह है संत-सुधा-सार, जिसका संग्रह एक संस्कृत श्लोक बनाकर मैंने
इस तरह रख दिया हे
_ “स्वकमंखणि-समाधघानं, परदुःख-निवारणंमू ।
नामनिष्ठा, सतां संग, चारिज््य-परिपालनमू ॥?
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