प्रमेयकमल मार्त्तण्ड भाग - 2 | Pramey Kamal Marttand Bhag - 2

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Pramey Kamal Marttand Bhag - 2  by आर्यिका जिनमती माताजी - Aaryika Jinmati Mataji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ रैर | के अभाव में भ्रनुमान प्रमाण का प्रादुर्भाव असंभव है, बात तो यह है कि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तकं॑ एवं श्रवुमान इन प्रमाणों में पूर्व पु्वे प्रमाणों की आ्रावश्यकता रहती है भ्रर्थात्‌ प्रत्यक्ष से अनुभूत विषय में ही स्मृति होती है, स्मृति श्रौर प्रत्यक्ष का संकलन स्वरूप प्रत्यभिज्ञान होता है, तथा तर्क॑ साध्य साधन के सम्बन्ध का स्मरण एवं संकलन हुए बिना प्रदत्त नहीं हो सकता । ऐसे ही श्रनुमान को पूर्व प्रमाणों की झ्रपेक्षा हुध्ा करती है अत: निक्चय होता है कि श्रनुमान के साध्य साधन रूप अवयवों के सम्बन्ध को ग्रहण करने वाला तकं एक पृथक्भूत प्रमाण है । अनुमान प्रमाण का लक्षण ( साधनात्‌ साध्य विज्ञानमनुमानम्‌ ) और हेतु का लक्षण ( साध्याविनाभावित्वेन निद्चितो हेतु: ) करते ही बौद्ध भ्रपने हेतु का लक्षण उपस्थित करते हैं कि पक्षधमं सपक्षसत्व श्र विपक्ष व्यावृत्ति इस तरह श्रेरूपय ( तीन रूप ) ही हेतु का लक्षण होना चाहिये श्रन्यथा उक्त हेतु सदोष होता है । इस त्रेरुप्यवाद का निरसन तो कृतिकोदयादि पूर्वचर हेतु से ही हो जाता है, भ्र्थात्‌ “उदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं कृत्तिकोदयात्‌'' इत्यादि श्रनुमानगत हेतु में पक्ष धर्मादि रूप नहीं होते हुए भी ये अपने साध्य के साधक होते हैं श्रत: हेतु का लक्षण चेरूप्य नहीं है । पांचरूप्य खण्डन--नेयायिक हेतु का लक्षण पांच रूप करते हैं पक्ष धर्म, सपक्षसत्व, विपक्षव्यावृत्ति, भ्रसत्प्रतिपक्षत्व और श्रबाधित विषयत्व, यह मान्यता भी बौद्ध मान्यता के समान गलत है क्योंकि इसमें भी वही दोष झ्राते हैं, भ्र्थात्‌ सभी हेतुओं में पांचरूपयता का होना जरूरी नहीं है । पांचरूपता के नहीं होते हुए भी कृतिकोदयादि हेतु स्वसाध्य के साधक देखे जाते हैं । अनुमान त्रेविध्यनिरास--पुर्वबतू, शेपवत्‌ श्रौर सामान्यतोहष्ट ऐसे भ्रनुमान के तीन भेद नेयायिक के यहां माने जाते हैं, इनके केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी भ्रादि विभाग किये हैं किन्तु यह सिद्ध नहीं होता, सभी अनुमानों में अ्विनाभावी हेतु द्वारा स्वसाध्य को सिद्ध किया जाता है श्रत: उनमें पूवंबत्‌ श्रादि को नाम भेद करना ब्यथे है । अ्रविनाभावादिका लक्षण एवं हेतुग्रों के सोदाहरण बावीस भेद --श्रविनाभाव का लक्षण, साध्य का स्वरूप, पक्ष का लक्षण, श्रतुमान के अंग, उदाहरण, उपनय एवं निगमनों का लक्षण, बविधिसाघक एवं प्रतिषेधक साधक हेतुभ्रों के भेद, बौद्ध कारण




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