इतिहास साक्षी है | Itihas Sakshi Hai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२० इतिहास साक्षी है वह उपनिषद्‌-काल था जब राजाओको भूमि जीतनेकी तृष्णा भूमिकी उपलब्धिसे मिट चली । तब एक दूसरी तृष्णाने उनके भीतर घर किया । वह तृष्णा थी ज्ञान-विजयकी । अब उन्होने ज्ञानके क्षेत्रमे अपना साका चलाना चाहा और चलाया भी । राजाओके दरबार तब ज्ञानके अखाडे बन गये । और उनमे ऋषियों और ब्रह्मवादियोके दास्त्रार्थ होने लगे । अबके ज्ञान-गुरु ब्राह्मण नहीं क्षत्रिय थे और वह भी क्षत्रिय राजा । उन्होने प्रजाका रुख एक दूसरी ओर फेर दिया जिसका न कोई दारीर था न कोई आकृति थी जो न खाता था न खिलाता था फिर जो सर्वदाक्ति- मान्‌ था और जिसे ब्रह्म कहते थे । इन्द्रको मास और सुरासे छकाने- वाले भौतिक सबलवाले बेचारे ब्राह्मणोको भला इस नये अदयरीरी ब्रह्मा और उसके अनुचर आत्माका बोध कैसे होता ? उनके इन्द्रका जॉल इस नये ब्रह्मके इन्द्रजालसे कट गया और कर्मकाण्डका सारा आधार ही नष्ट हो गया । अब उनके लिए सिवा इसके कोई चारा न था कि वे राजाओंके अनुयायी बनते उनके द्वारा आयोजित दरबारी शास्त्रार्थोमे भाग लेते । देदामे ऐसे दरबारी अखाडोकी सख्या चार थी--पजाबमे केकय गगा- यमुनाके द्वाबमे पचाल काशी--जनपदमें काशी और उत्तर बिहारमे मिथिला । इनमे सबसे पूरबका दरबार जनक विदेहका मिथिलामे था । राजा जनक जो रामचस्द्रके ससुर और जानकीके पिता थे वे सीरध्वज जनक थे विदेह जनकसे भिन्न और बहुत पहिलेके । परन्तु विदेह जनक उनसे महान्‌ माने गये क्योकि उन्होंने विदेह जातिकी जनताका नाम विरुदके रूपमे धारण कर उसे ऐसा रूप दिया जो ब्रह्मज्ञानी ऋषिका बाना बन गया--देह रहते उसने उन्हें विदेह अर्थात्‌ जीवन्मुक्त बना दिया यद्यपि वह उतने ही पाथिव थे जितने उनके विदेहभिन्न अनुयायी । क्योकि कहा जाता हैं कि एक पैर जहाँ उनका सिहासनपर रहता था वही दूसरा जगलमे रहता था--काथ कि कोई समझ पाता कि चाहे उनका एक पैर जगलमे उहता रहा हो दूसरा नि सदेह सिहासनपर जमा रहता था ।




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