जैन हित शिक्षा | Jain Hit Shiksha

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Jain Hit Shiksha by दुर्जनदास सेठिया - Durjanadas Sethiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(न 2) परम संवेगए ॥ एहवा तुम वच सरस बविलासए ॥। भ० ॥ ३ ॥ घगी सौठी चक्रौनी खौर ए ॥ वलि खौर 'ससुद्रनो नौर ए ॥। एहधी तुम वच अधिक विसासए ॥। 'भ० ॥४॥ सांभलनें जन बन्द ए ॥ . रोम रोम में पामें आनंद ए ॥ ज्यारी मिंटों नरकादिक वास ए ॥ भग् ॥ शा तु प्रसु दौन दयाल ए ॥ तु अशरण शरण निहालए ॥ ह' छ' तुमारो दासए ॥ भ० ॥द॥1 संवत उगयणौसे सोयए ॥ मांद्रवा सूदि तेरस॑ जोय ए॥ पहु'ची सननी आश ए ॥ भ० पेश ' शी चद्रप्रमुजिन स्तन । ( शिवपुर नगर खुद्दामणों एदेशी ) हो प्रभु चंद जिनेश्वर चंद जिस्यों ॥ बाय शौतल चंद सो न्हालहो ॥। प्रभु उपशम रस लन.सांभले ॥। मिटों कम भ्रम मोह जाल हो ॥ प्रमु० ॥ १ ॥। एआंकणो ॥ हो प्रभु सूरत सुद्रा सोहनी ॥ - बारु रूप॑ अनुप विशाल हो ॥ प्रभु इन्द्र शचौ लिन निरखती ॥। तेतो ढप्त न होवे निदालहों ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ अही बौतराग प्रभु तू सर्दी ॥। तुम ध्यावे चित्त रोकडों ॥। प्रमु तुम तुल्य ते वे ध्यान स्थं ॥ मन पाया परम संतोष हो ॥ प्रसु ॥ ३॥. हो प्रभु लौन परे तुम चर




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