हिंदी - नाटकों का विकास | Hindi Natakon Ka Vikas

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Hindi Natakon Ka Vikas by शिवनाथ - Shivnath

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ हिंदी-नाटकों का विकास जाता था; भास्तेंट-मुग मे नाथकों का अनुवाद करते समय मूल रचना की भाँति पद्य के साथ ही गद्य का अलुवाद भी किया गया | अभिपाय यह कि मारवेद-युग मे स्ाभाविकता पर लोगों की दृष्टि विशेष थी । यदि रस की दृष्टि से विचार करे तो ज्ञात होगा कि इस युग में हू कर | न च् # न, अनूदित सचनाओ मे श'गार और वीर का ही प्राघान्य है, जेंसा कि इसके पूर्व के युग मे था | गार कयथथ७ भारतेदु-युग के पूर्व के नाटकों के विपय की चथां करते हुए कहा गया है कि उस युग में श्रनूद्ति तथा मौलिक दोनो प्रकार के नाटकों का विषय मुख्यतः पौराणिक था; उस युग के नाटका के विपय किसी न किसी रूप में राम और कृष्ण के जीवन से संबद्ध है । झअमभिप्राय यह है कि उस युग में नाटकों का _विषय मुख्यतः पौराशिक दी था । __ भास्तेट-युग में आकर नाटकों के विषय की परिमिति बढ़ी । पौराणिक विषयों को ओर तो इस गुग के नाटककारों की दृष्टि गई ही; विफ्य की यह परंपरा तो पूर्व युग से चली ही श्रा रही थी, ऐतिहासिक श्रौर ( सामाजिक विषयों की ओर भी तद्युगीन नाटककारो की दृष्टि गईं । श्री राघाकुष्णदास के “मेवाड़ पश्चिनी” तथा “महाराणा प्रतापसिंह' नाटक बहुत प्रसिद्ध है । भारतेंदु श्री हरिश्रंद्र का 'नीलदेवी नाटक भी ऐतिहासिक है । लाला श्रीनिवासदास का “संयोगता स्वयंवर” नाटक भी इसी कोटि में झ्राता है। शअभिप्राय यह,कि उस युग में ऐतिहासिक वस्तु की श्रोर भी नाटककारों की दृष्टि गई । 'नाटक' नामक प्रबन्ध में नवीन नाटकों के उद्देश्य पर विचार करते हुए भारतेंदु श्री दरिश्रंद्र ने कहा है--'इन नवीन नाटकों




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