कुछ सच कुछ झूठ | Kuch Such Kuch Juth
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
79
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वह पत्र, जो भेजा ते गया. + श्ध्
होगई है । बस, डिबिया में मुभे बन्द करके रख छोड़ा है ।
लेकिन बहुत हुआ । वहुत दवी में । अब नहीं दर्वूगी । में
कोई उनकी जागीर नहीं हूँ । तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पत्र ने
मुभमें विद्रोह की कैसी भेरवी फूँक दी है ? में जान देकर भी
अपने व्यक्तिरंव की रक्षा करूँगी । अपनी प्रतिभा को नष्ट न होने
दूँगी । कुछ भी होजाय, अब तो में मीरा वन कर ही रहूँगी' * ।
मेरे उद्धारक, याद रखना मेरी इस वात को । -
अधिक क्या लिखूँ ? कोई आरहा है । और कोई नहीं, स्वयं
वही आरहे हैं । पत्र बन्द करती हूँ * * । लेख फिलहाल विना
चित्र के ही छाप दीजिए । प्रयत्न में हूँ कि चित्र भी आपको शीघ्र
ही भेज सकूँ ।
तुम्हारे पत्र की अपलक प्रतीक्षा में !
तुम्हारी--
न्जसुन्दरी
पत्र को एक बार पढ़ा, दो बार पढ़ा, मजा आगया। लेकिन साथ
ही यहू समस्या भी पैदा होगई कि इसे अव फिर श्रीमतीजी से नकर
' कँसे कराया जाय ? श्रीमतीजी से इस बारे में कुछ कहना बरें के छत्ते
में हाथ डालना था । मगर बिना कहे गति भी नहीं थी । सोचा, क्या
आदमी हो, औरत के साथ जरा रौव से काम लेना चाहिए । मेंने ज़रा
मुँह विगाड़कर रुखाई से कहा : “देखना जी, इस चिट्ठी की नकल मुझे
अभी चाहिए ।”” ः
उन्होंने चीचे से ऊपर तक मु्के बड़े गौर से देखा । मगर कुछ कहा ._
नहीं और हाथ बढ़ाकर चिट्ठी ले ली । ं
लेकिन देखता क्या हूँ कि चिट्ठी के पढ़ते ही उनके तन-बदन में
ज्वाला-सी -भभक उठी । उनकी साँस जल्दी-जल्दी उठने लगी और
गिरने लगी 4' मुँह तमतसा आया 1 ओठ फड़फड़ा आए। आँखों में
अंगारे से वरसाती हुई वह बिजली की तरह एकाएक कड़की--“'कौन
हूं यह कलमुंदही ब्रजसुन्दरी ? ”
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