कुछ सच कुछ झूठ | Kuch Such Kuch Juth

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Kuch Such Kuch Juth by गोपालप्रसाद व्यास - Gopalprasad Vyaas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वह पत्र, जो भेजा ते गया. + श्ध् होगई है । बस, डिबिया में मुभे बन्द करके रख छोड़ा है । लेकिन बहुत हुआ । वहुत दवी में । अब नहीं दर्वूगी । में कोई उनकी जागीर नहीं हूँ । तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पत्र ने मुभमें विद्रोह की कैसी भेरवी फूँक दी है ? में जान देकर भी अपने व्यक्तिरंव की रक्षा करूँगी । अपनी प्रतिभा को नष्ट न होने दूँगी । कुछ भी होजाय, अब तो में मीरा वन कर ही रहूँगी' * । मेरे उद्धारक, याद रखना मेरी इस वात को । - अधिक क्या लिखूँ ? कोई आरहा है । और कोई नहीं, स्वयं वही आरहे हैं । पत्र बन्द करती हूँ * * । लेख फिलहाल विना चित्र के ही छाप दीजिए । प्रयत्न में हूँ कि चित्र भी आपको शीघ्र ही भेज सकूँ । तुम्हारे पत्र की अपलक प्रतीक्षा में ! तुम्हारी-- न्जसुन्दरी पत्र को एक बार पढ़ा, दो बार पढ़ा, मजा आगया। लेकिन साथ ही यहू समस्या भी पैदा होगई कि इसे अव फिर श्रीमतीजी से नकर ' कँसे कराया जाय ? श्रीमतीजी से इस बारे में कुछ कहना बरें के छत्ते में हाथ डालना था । मगर बिना कहे गति भी नहीं थी । सोचा, क्या आदमी हो, औरत के साथ जरा रौव से काम लेना चाहिए । मेंने ज़रा मुँह विगाड़कर रुखाई से कहा : “देखना जी, इस चिट्ठी की नकल मुझे अभी चाहिए ।”” ः उन्होंने चीचे से ऊपर तक मु्के बड़े गौर से देखा । मगर कुछ कहा ._ नहीं और हाथ बढ़ाकर चिट्ठी ले ली । ं लेकिन देखता क्या हूँ कि चिट्ठी के पढ़ते ही उनके तन-बदन में ज्वाला-सी -भभक उठी । उनकी साँस जल्दी-जल्दी उठने लगी और गिरने लगी 4' मुँह तमतसा आया 1 ओठ फड़फड़ा आए। आँखों में अंगारे से वरसाती हुई वह बिजली की तरह एकाएक कड़की--“'कौन हूं यह कलमुंदही ब्रजसुन्दरी ? ”




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