श्री मद राजचन्द्र और भक्तरत्न | Shri Mad Rajachandra Aur Bhakta Ratna
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
144
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about प्रेमचंद रवजीभाई कोठारी - Premchand Ravajibhaee Kothari
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)की
चार गतियों में परिश्रमण करते-करते जीव के झुभ पुण्य के संचय से अमोछ
मनुष्य देह प्राप्त होता है । जन्म-मरण से मुक्त होने का जो योग देवगति में भी देवों
को दुर्भ है, वह मनुष्य भव में जीव के सत् पुण्य योग से सतघर्म के कारण सुख्भ
होता है । ऐसी मनुष्य देह के अनन्त बार प्राप्त होने पर भी, जन्म-मरण से मुक्त होने
के लिए अथक पुरुषार्थ करने पर भी, अभी तक जीव को जन्म-मरण से छुटकारा नहीं मिला ।
बहु पुण्य के पुंज से, शुभ देह मानव का मिछ। |
वो भी भरे मव चक्र का, आंटा नहीं कोई टका | १
स्केल
फुनरपि जननमू पुनरपि मरप्पमू
धुनरपि जननीजठरे शयनस्,। -थी शंकरायायं
देह प्राप्त होने पर मनुष्य जिस कुल में जीव जन्म छेता है, उस कुलधर्म के
अनुसार वह धर्मकाय करता है । धर्मकार्य करने से पुण्य की प्राप्ति के कारण, जगत् का
सर्वोपरि सुख प्राप्त होने की अमिलाषापूर्वक, लौकिक दृष्टि से, प्राणि-मात्र धर्म करने के
छिए प्रेरित होता है । उसी को वह सतधर्म मानता है । सत॒धर्म का फल मुक्ति होता है ।
सतधर्म का स्वरूप क्या है ! पूर्काल के महात्माओं ने भी धर्म के थी में
छिखा है--
धरम घरम करता सब जग फिरे, धरम का न जाने हो ममे''' जिनेसर
घरम जिनेसर चरण गक्का फिर, कोई न बाघे दो कमे'”' जिनेसर
-एथी मानंदघनजी
जि बहु पुण्यकेरा पुंज थी शुभ देह मानवनों मछयो,
तो ये अरे ! भवचक्रनो, आंटो नहिं एक्के टदयों !
-शीमद्ू राजखन्द्र मोझमाला, अमूल्य तत्व विचार ६७
&
प्र रविटपफरिटिफर
दी
ं
पर
पर
User Reviews
No Reviews | Add Yours...