ध्वनिसिद्धान्त का काव्यशास्त्रीय सौन्दर्यशास्त्रीय और समाजमनोवैज्ञानिक अध्ययन | Dhwanisiddhant Ka Kavayshastriy Saundaryashastriy Aur Samajamanovaiganik Adhyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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। त्राचार्य आनन्दवर्क द्वारा प्रतिपादित ध्वनिसिद्धान्त ध्यंजना व्यापार पर श्राचुत है । श्रानंदवर्फ मे वाच्यार्थ से व्यतिशिकत प्रतीयमान अर्थ को स्यंग्याथ कहा है और व्यंग्या्थ की प्रती ति व्यंजता द्वारा सिद्ध की है । प्रतीयमान अर्थ के श्स्तित्व की शोर शानन्ववर्धन के पूर्व मी संकित किये जाते रहे थे, परन्तु इसकी सर्वप्रथप निम्नान्त स्थापना श्वम्यालोक मैं ही संपन्न हुढ है । 'ध्बन्यालौक मैं आचार्य जानन्दवर्धन ने स्पष्ट लिखा है कि यह सिद्धान्त विद्वानों द्वारा पूर्वत: सकैतित मुमिका पर जाधुत है । निम्तलिखित श्लोक का 'सूरिमि:” पद आानंदवर्धन की छसी मावना को व्यक्त करता है >- यत्रा्थ: शनुदी वा ख़मरधपुपसजनी कृतस्वा्थी । व्यदुक्त: काव्यविशेण: स ध्वनिरिति सूरिसि: कथित: ।। बुचि में लिखा गया है -- सुरमि: कथित: इति बविद्वदुपलेय्मुक्ति: , न तु य्थाक्थ चित प्रवुचै ति प्रतिपाध्ते । प्रथमे हि विद्वांसी वैयाकरणा : । र्‌ वैयाकरण-शरुयमाण कणों मैं “ध्वनि का व्यपदेश करते हैं -- ते च बुयमाणेथु वर्णैष्यु ध्वनिरिति व्यहरन्ति' *ै। हस प्रकार जानस्ववरध की 'ब्यंबता और ध्वनि का प्रेरणास्त्रौत वैयाकरणों का 'जुय्साण नम ममवितिए, सिर पलक सवलियार नल: .ाममंकि, स्लिम! परलमतत, बगल 'लाफााए (पेय, सेक्स (संगवर स्वर कपकमा सका, परत अयालिकेर पति (मभासिय पदक भावों 'मनावं साली एनमतता एमायाद कलम (रस, सर मना (सह भबंत लकाण नाबालिग गाए खां नामाताए सलावतीग तमाा पार! तरकए पसदंधा आसार, तल तमतग, पलता अर ला एववादल वावका गन वाला पलक, १, ध्वन्यालौक, बालप्रिया टीका, पृ , ०३ र. वही, यु १३२ ३, वही, पु. १३३




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