विराट ह्रदय | Virat Hridaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( र६ ) सेउसने सभी देवी देवताश्रों को एक महान्‌ शक्ति के श्राघीन कर दिया । अब उस 'एकम्‌ अद्वितीयम्‌' की अनुभूति के सम्मुख अन्य सत्ताएँ फीकी लगने लगी उन का बाह्म-महत्व भी कम होने लगा । उपनिषदों के युग में यह वत्ति प्रवल रूप में दिखलाई देने लगती है । इस से श्रागे विकास की वह सीमा आती हैं जहाँ अर तमुर्खी एक सूचता साघना के मांग से बहुमुखी धाराओं में बाहर फूट कर मानव जीवन आ्रौर ईश्वरीय सु्रि को प्रेम और करुणा से श्राह्वित कर देती हैं; ऋ्रतयामी तर बहियामी दो अरतग ग्रलग चीजें न रह कर सर्वात्म भाव में एक हो जाती हैं । गौतम बुद् की करुणा श्र प्रेम की पीयूप घाराएँ इसी सवात्म भाव के व्यावदारिक रूप हैं । विश्वात्ममाव के व्यापक परवाह में प्रकृति का श्रथ बाइर दिखलाई देने वाली सभी व तुझों के श्रलावा प्राणियां की सहज स्वाभाविक वृत्ति झर वस्तुझ्ओों का घर्म भी हो जाता हैं । बौद्ध धर्म के उपरान्त वह समय श्ाता हैं जब ब्रह्ममाद के विराट आत्मतत्व का जल; कर्मवाद आर भक्ति-प्रेम योग के फोर्टों पर बहने लगता है । वास्तविक रूप में इस युग में भारत की सभी प्राचीन घाराएँ तअधथाह सागरों 'महामारत' श्र 'रामायण” में मिल गईं। प्राचीन प्राकृतिक शक्तियों के जो रूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश में बदले थे वे अब दिव्य स्वग भूमियों से उतर कर हरी-भरी मानवी '्रथ्वी में पहिचानी जाने लगीं । प्रथ्वी पर ही, कल्पना के स्वर्ग को उतार लाने से, जनता को वह विश्वास मिला जिस ने उस के प्राणों को ऑ्राशा को ज्योति दी, बल दिया, वेंद्क युग का उल्लास दिया अर अन्य युगों की दाशंनिक तथा भौतिक क्रिया- शीलता तौर समन्वयवादी . प्रेम-प्रवणता दी । मनुष्य की कलाएँ प्राणवान, दिव्य और सुंदर हो गई । शिव, कृष्ण श्र राम जनता के जीवन के अभिन्न झंग बन गये । दुःख की काली घटाश्ों के बीच कृष्ण, राम श्र शिव के लोक-कंल्याणुकारी कार्यों की याद, जीवन




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